आज के अखबार में
वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर लिखते हैं:
"इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को अब वही कोई
अगला प्रधानमंत्री बनाये रख सकता है, जो दृढ. प्रशासक हो। जिसमें भ्रष्टाचार
के प्रति शून्य सहनशीलता हो और जो विकास को ही अपनी राजनीति का मूल मंत्र बनाये। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो धीरे-धीरे लोकतंत्र पर से आम जन का विश्वास
पूरी तरह उठ जायेगा। जनता का जब लोकतंत्र से विश्वास उठता है, तो उसे तानाशाह ही अच्छा लगना लगता है।"
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मेरा आकलन कहता है कि
आगामी आम चुनाव के दो-ढाई वर्ष के अन्दर लोगों का "लोकतंत्र" पर से
"भरोसा" पूरी तरह से उठ जायेगा। यह कैसे होगा- अभी मैं ठीक-ठीक नहीं बता सकता। मगर ऐसी
कुछ घटनायें जरूर घटेंगी कि स्थिति "जनता बनाम राजनेता" की बन जायेगी।
देश के अन्दर गरीबों-अमीरों के बीच की खाई इतनी चौड़ी हो जायेगी कि देश में अगर गृहयुद्ध
छिड़ जाय, तो आश्चर्य नहीं! गृहयुद्ध न भी छिड़ा, तो स्थिति अराजक होनी ही है।
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आज देश की मौजूदा हालात को देखते हुए एक
वरिष्ठ एवं अनुभवी पत्रकार "तानाशाही" की बात सोचने लगा है, या कम-से-कम
प्रधानमंत्री के रुप में एक "सख्त" प्रशासक की बात करने लगा है, तो जाहिर
है कि 2017 की अराजक स्थिति में आम लोग भी "तानाशाही" की बात सोचने
लगेंगे।
मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि उपर्युक्त उद्धरण में सुरेन्द्र किशोर
जी का ईशारा एन.एम. की तरफ तो नहीं ही है ('दृढ़' और 'विकास' शब्दों को देखते हुए
बहुत लोग ऐसा सोच सकते हैं)। भले खुलकर कहने से वे बच रहे हों, मगर उन्हें देश का
उद्धार अब एक "वास्तविक" "तानाशाही" में नजर आने
लगा है। मेरा अनुमान है कि देश के ज्यादातर बुद्धीजीवियों की सोच अब इस तरफ बढ़ने
लगी है।
मैं एक सिद्धान्त देना चाहूँगा: "आदर्श तानाशाही के माध्यम
से आदर्श लोकतंत्र की स्थापना।" ("Ideal
democracy through ideal dictatorship.")
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इसी के साथ अपने एक पुराने सिद्धान्त को भी
दुहरा दूँ कि ऐसा क्यों जरूरी है: कोई भी शल्य चिकित्सक कितना भी काबिल क्यों न
हो, वह अपने शरीर पर चीरा लगाकर खुद पर शल्यक्रिया नहीं कर सकता। (हालाँकि एक रूसी
शल्य चिकित्सक ने अपने ऊपर शल्यक्रिया की थी- यह एक अपवाद है।) ठीक उसी प्रकार, भारतीय
लोकतंत्र भी, चाहे वह कितनी भी अच्छी शासन-प्रणाली क्यों न हो, वह खुद अपने ऊपर चीरा
लगाकर कैन्सर की चार गाँठों- 1. भ्रष्ट राजनेता, 2. भ्रष्ट उच्चाधिकारी, 3. भ्रष्ट
पूँजीपति तथा 4. माफिया सरगना- को निकाल बाहर नहीं कर सकती! भारतीय लोकतंत्र को
क्लोरोफॉर्म सूँघाकर 10 वर्षों के लिए बेहोश करना ही होगा और एक तानाशाह को
थोड़ी-बहुत निर्ममता के साथ उसके पेट पर चीरा लगाकर कैन्सर की उपर्युक्त चारों
गाँठों को निकालना होगा। बेशक, 10 वर्षों में इस लोकतंत्र को स्वस्थ बनाकर वह
इसे फिर सत्ता सौंप देगा।
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यह सही है कि ईदी अमीन-जैसे नृशंस, हिटलर-जैसे नस्लवादी और
मुशर्रफ-जैसे मूर्ख तानाशाहों ने "तानाशाही" को घृणास्पद, खौफनाक तथा मजाक बना दिया है, मगर सच यह है कि तानाशाही भी शासन की एक
विधा ही है। एक अच्छा तानाशाह एक अराजक देश को खुशहाल, स्वावलम्बी एवं शक्तिशाली तथा
पथभ्रष्ट नागरिकों को सुसभ्य, सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत बना सकता है। तुर्की के
तानाशाह कमाल अतातुर्क पाशा इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं।
बताना प्रासंगिक होगा कि हमारे नेताजी सुभाष इन्हीं कमाल पाशा से
प्रभावित थे।
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एक कहावत है- एक टूटा-फूटा लोकतंत्र हजार
गुना बेहतर होता है तानाशाही से! 'सोशल मीडिया' पर उपस्थित भारतीयों को अगर
"नमूना" माना जाय, तो पता चलता है कि देशवासी तानाशाही से नफरत करते
हैं; उन्हें यही डर सताता है कि कहीं तानाशाह के रुप में एक ईदी अमीन, हिटलर, या
मुशर्रफ उन्हें न मिल जाय; और वे एन.एम., आर.जी. या ए.के. में- फिलहाल- देश का
भविष्य देखने में व्यस्त हैं- किसी दूसरी विचारधारा के बारे में सोचने के लिए उनके
पास समय नहीं है। कुछ लोग ए.एच. और एस.आर. को देश का तारणहार मान रहे हैं।
जहाँ तक मेरी बात है, मैं ए.एच. और एस.आर.
को तारणहार इसलिए नहीं मानता कि ये दोनों "सत्ता की बागडोर बिना थामे बिना"
व्यवस्था परिवर्तन चाहते हैं- यह कुछ वैसा ही है, जैसे चूहों से उम्मीद पालना कि
वे अपने लिए चूहेदानी का निर्माण खुद करेंगे! एन.एम. और आर.जी. फिलहाल दो विपरीत
ध्रुव हैं, मगर मुझे डर है कि अगले आम चुनाव के बाद ये दोनों कहीं हाथ न मिला
लें... नॉर्थ व साउथ ब्लॉक की आलमारियों में कैद "कंकालों" की
"गोपनीयता" बनाये रखने के लिए! ए.के. के लिए राह मुश्किल है क्योंकि
चुनाव प्रणाली दूषित है- बिना करोड़ रुपया खर्च किये अब चुनाव जीतना सम्भव नहीं है-
ऐसी स्थिति बना दी गयी है पिछले कुछ दशकों में।
इसलिए मैं "सपना देखता हूँ" कि
2017 तक भारतीयों की सारी उम्मीदें चकनाचूर हो जायेंगी; देश में राजनीतिक "निर्वात्"
पैदा हो जायेगी; तब चलेगी एक "आँधी", जिसमें देश के नागरिक व सैनिक
दोनों शामिल होंगे; और उसके बाद देश की राजसत्ता एक आदर्श तानाशाह के हाथों में
सौंप दी जायेगी।
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मैं 1995-96 से ही- आज से 17-18 साल पहले से- यह मानकर चल रहा हूँ
कि देश को 10 वर्षों की एक तानाशाही की सख्त आवश्यकता है, वर्ना यह देश एक
"असफल" राष्ट्र बन जायेगा!
मैंने उस भावी "तानाशाह" की एक छवि भी बना रखी है, जिसमें
नेताजी सुभाष-जैसी भव्यता और लाल बहादूर शास्त्री-जैसी सादगी दोनों होगी। उसका
स्वभाव विपत्ती में तथा अमीरों एवं बुरे लोगों के प्रति वज्र से भी कठोर होगा, तो
सम्पत्ति में तथा गरीबों एवं अच्छे लोगों के प्रति फूल से भी कोमल होगा।
मैंने बीते सितम्बर में सामान्य तरीके-से (बिना 'तानाशाही' शब्द का
जिक्र किये) 'फेसबुक' पर इन शब्दों में उस भावी तानाशाह का चित्र खींचा था-
"क्या हम उस दिन की कल्पना कर सकते हैं, जब हमारे देश का प्रधान एक आम आदमी की तरह एक
मामूली साइकिल पर सवार होकर दिल्ली की सड़कों पर (या किसी भी शहर/गाँव में)
घूमेगा... उसके चारों तरफ कार्बाईन थामे या काला चश्मा लगाये अंगरक्षक नहीं
होंगे... आस-पास चलते राहगीर ज्यादा-से-ज्यादा उसे देखकर मुस्कुरा देंगे या हल्के
से हाथ हिला देंगे... वह जब किसी रेस्तोराँ में जायेगा, तो पहले से बैठा कोई ग्राहक उसके लिए कुर्सी खाली
नहीं करेगा... और वहाँ का बेयरा अन्य ग्राहकों की तरह ही उससे व्यवहार करेगा- भले
एकबार वह उसे नमस्ते कह दे...
अगर हमसब ऐसी कल्पना कर सकते हैं, तो जान लीजिये कि "परिवर्तन" अब ज्यादा
दूर नहीं है..
और अगर हम ऐसी कल्पना नहीं कर सकते, तो गाँठ बाँध लीजिये कि हमारे देश के दुर्भाग्य
का दौर अभी और लम्बा चलेगा... !"
(एक मजेदार बात मैं बताऊँ कि मेरी इस पोस्ट
को किसी ने गम्भीरता से नहीं किया था, मगर जब इसी पोस्ट को स्व॰ श्री राजीव
दीक्षित जी की याद में ने- बाकायदे मेरे नाम के साथ- पोस्ट किया, तो 9 अप्रैल तक इसे 13 शेयर और 56
पसन्द मिल चुके थे! जाहिर है, मेरा अपना दायरा बहुत छोटा है।)
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खैर। मेरे वाले उद्धरण में अन्तिम जो दो
पंक्तियाँ हैं, उसमें गहरा अर्थ छुपा है। अगर हम वाकई ऐसे राष्ट्रनायक की कल्पना न
कर सकें और इस कल्पना पर हँस दें, तो हो सकता है कि 2017 के बाद भी देश की किस्मत
करवट न ले....
...क्योंकि जब तक बहुत-से लोग अच्छा
सोचेंगे नहीं, तब तक अच्छा घटित कैसे होगा?
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