रविवार, 6 अप्रैल 2014

162. मेरे मन के सवाल का उत्तर



       इतना तो मुझे जानने वाले जान ही गये हैं कि मैं इस देश में 10 वर्षों की "जनकल्याणकारी तानाशाही" का समर्थक हूँ हालाँकि भारत में यह असम्भव है, फिर भी, कभी अगर "नागरिकों व सैनिकों" के सम्मिलीत सहयोग से ऐसी कोई व्यवस्था कायम होती है देश में और मुझे जिम्मेवारी दी जाती है, तो मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि मैं समता, पर्यावरण-मित्रता और उपयोग (उपभोग नहीं) पर आधारित व्यवस्था कायम करूँगा। भावनात्मक रुप से स्पष्ट किया जाय, तो वैसा ही सब करूँगा, जैसा कि नेताजी सुभाष देश का प्रधान बनने के बाद करते!
       जो एक सवाल अक्सर मुझे मथता था, उसका उत्तर मुझे परसों मिला और अब मैं उस सवाल को लेकर परेशान नहीं हूँ। मेरे मन का सवाल यह था कि तानाशाह के रुप में लिये गये मेरे किसी निर्णय को अगर सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जाय और न्यायालय का फैसला आये कि इस निर्णय को वापस ले लिया जाय, तो मुझे क्या करना चाहिए?
       एक उदाहरण: मेरे घोषणापत्र के अनुसार, गोल्फ के मैदानों को (दो-एक को छोड़कर) चारागाह सह गौशाला में बदलना है। जाहिर है, मामला कोर्ट में जायेगा और यह भी जाहिर है कि कोर्ट का फैसला सरकार के निर्णय के खिलाफ ही आयेगा। भले इसका जिक्र घोषणापत्र में हो और भले देश की आम जनता भी यही चाहती हो, फिर भी, न्यायालय तो न्यायालय है। वह भला एक करोड़पति के शौक की रक्षा क्यों न करे?
       खैर, तो परसों मुझे इसका उत्तर मिल गया। परसों के प्रभात खबर में अब्राहम लिंकन पर एक लेख छपा है:  'अमेरिकी राष्ट्र का चरित्र निर्माता'; लेखक हैं- रविदत्त वाजपेयी। लेख के दो पाराग्राफ निम्न प्रकार है:
       "अब्राहम लिंकन के राष्ट्रपति बनते ही अमेरिका के दक्षिणी राज्यों ने स्वयं को अमेरिकी संघीय ढांचे से अलग करना शुरु कर दिया। राष्ट्रपति लिंकन ने अमेरिकी राष्ट्र को एकसूत्र में बाँधे रखने के लिए युद्ध पर जाने का निर्णय लिया। इस युद्ध के दौरान राष्ट्रपति लिंकन ने अपने पास लगभग सारे अधिकार केन्द्रित कर लिये। युद्ध के दौरान लिंकन ने सदन, न्यायालय, अन्य संवैधानिक प्रक्रिया-जैसी परम्पराओं की अवहेलना करने से भी परहेज नहीं किया। एक पत्र में राष्ट्रपति लिंकन ने लिखा- 'देश गँवा के संविधान बचाने का क्या औचित्य है?... शरीर बचाने के लिए एक अंग काटा जाता है लेकिन एक अंग बचाने के लिए पूरे शरीर को नष्ट नहीं किया जा सकता।'
       "एक जनवरी, 1863 में राष्ट्रपति लिंकन ने 'दासत्व मुक्ति घोषणा' के द्वारा इस युद्ध में अमेरिका के एकीकरण के साथ ही गुलामी का समापन भी जोड़ दिया। 1864 में गृहयुद्ध के चरम पर भी राष्ट्रपति लिंकन ने चुनाव पर जाने का निर्णय लिया, जबकि राष्ट्रपति के सलाहकारों ने भी लिंकन के चुनाव हारने की आशंका जतायी थी। युद्ध के बीच एक राष्ट्रपति के रुप में असाधारण अधिकारों से सम्पन्न होते हुए भी लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाये रखने के चुनाव का निर्णय लेना राष्ट्रपति लिंकन के साहस और ईमानदारी का प्रमाण है।"
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       कहने की आवश्यकता नहीं, फिर भी कह दूँ कि मेरी 10 वर्षीय जनकल्याणकारी तानाशाही के जो तीन उद्देश्य हैं, उनमें से तीसरा है: 10 वर्षों के बाद देश में आदर्श चुनाव का आयोजन करवाते हुए स्वस्थ, सबल, टिकाऊ लोकतंत्र की स्थापना करना। ...और मेरे घोषणापत्र का घोषणा क्रमांक 1.12 कहता है: दस वर्ष बाद होने वाले आगामी चुनाव की तिथियों की घोषणा की जायेगी। यानि तानाशाही कायम होते ही 10 साल बाद होने वाले चुनावों की तिथियाँ घोषित कर दी जायेंगी।
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