शुक्रवार, 8 जून 2012

"चक दे इण्डिया!"


24/2/2012
(क्या "खेल" को "नौकरी" न बना दिया जाय?)

      भारतीय हॉकी-बालाओं ने ओलिम्पिक का सफर तय कर लिया। बधाई! दिली शुभकामनायें! ओलिम्पिक में ये लड़कियाँ ऐसा खेल दिखाये, कि सारा स्टेडियम "चक दे इण्डिया!" के नारों से गूँज उठे!
      इस मौके पर मैं एक सुझाव प्रस्तुत करना चाहूँगा- क्यों न "खेलों" को "नौकरी" बना दिया जाय? यानि "खिलाड़ियों" को वेतन, भत्ते, पेन्शन तथा अन्यान्य सुविधायें दी जाय?
      विस्तृत सुझाव इस प्रकार है-
      1. जो खिलाड़ी राष्ट्रीय खेलों में राज्यों का प्रतिनिधित्व करे, उन्हें राज्य सरकारें एक "शिक्षक" का वेतन दें।
      2. अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्द्धाओं में भाग लेने वाले खिलाड़ियों को केन्द्र सरकार द्वारा एक प्राध्यापक का वेतन दिया जाय।
      3 ओलिम्पिक खिलाड़ियों को एक प्राचार्य का वेतनमान दिया जाय।
      4. आम तौर पर खिलाड़ियों का "सक्रिय खेल-जीवन" 10-12 वर्षों का होता है, इसके बाद उन्हें या तो वेतनमान के अनुरुप सामान्य नौकरियों में समायोजित कर लिया जाय; या फिर, कुछ अतिरिक्त प्रशिक्षण देकर उन्हें "खेल प्रशिक्षक" बना कर विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में नियुक्त कर लिया जाय।
      5. अतीत में जिन खिलाड़ियों ने खेलों में देश का नाम रोशन किया है, उनके वारिसों को एकमुश्त धनराशि देकर उनके प्रति भी श्रद्धाँजली प्रकट की जा सकती है।
      "नौकरी" अगर पुरस्कार है, तो "पढ़ाई" साधना। "खेल" भी तो साधना है। फिर इसके लिए पुरस्कार क्यों नहीं?
      हाँ, खेलों को नौकरशाहों तथा राजनीतिज्ञों के नियंत्रण से बाहर रखना भी जरूरी है। कम-से-कम एकबार ओलिम्पिक में, दो बार एशियाड में, या तीन बार राष्ट्रीय खेलों में सम्मानजन प्रदर्शन कर चुके पूर्व खिलाड़ियों की एक समिति बनाकर खेलों को उनके हवाले कर देना चाहिए।  

भूल-सुधार- रात समाचार समझने में गलती हुई. अगली सुबह पता चला- महिला टीम चूक गयी. हाँ, पुरुष टीम ने क्वालिफाय कर लिया है. 

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