शुक्रवार, 8 जून 2012

क्रिकेट: 'ग़ुलामी की निशानी' तथा 'अफीम'


5 फरवरी 2012 को लिखा गया 

      बँगला के क्रान्तिकारी कवि सुकान्तो भट्टाचार्य अपनी एक कविता में आशा व्यक्त करते हैं कि गुलामी का पट्टा खुलने के बाद हमारी गर्दन पर बब्बर शेर की तरह 'अयाल' उग आयें, जिसके नीचे पट्टे के निशान छुप जाये, ढक जाये
      पराधीन भारत के ये कवि अपनी युवावस्था में ही दुनिया छोड़ गये थे। बाद में गुलामी का पट्टा तो खुला, मगर अफसोस, कि कवि की आशा पूरी नहीं हुई। हमारी गर्दन पर सिंह के समान लम्बे, लहराते, रेशमी, स्वर्णिम बाल नहीं उगे... और पट्टे के निशान आज भी सारी दुनिया को दिखायी दे रहे हैं: एक- 1935 के अधिनियम के रुप में (जिसपर हमारा संविधान आधारित है); दो- राष्ट्रमण्डल के सदस्य के रुप में (जिसका प्रधान ब्रिटेन का 'राजमुकुट' है); तीन- अँग्रेजी भाषा के "प्रभुत्व" के रुप में, और चार- क्रिकेट के "नशे" रुप में।
      जी हाँ, मैं क्रिकेट को भी गुलामी की एक निशानी मानता हूँ, क्योंकि यह सिर्फ उन्हीं देशों में खेला जाता है, जो कभी अँग्रेजों के पक्के गुलाम रहे थे! आजाद ख्यालों वाले शायद ही किसी देश में इसे खेला जाता है।
      अगर इसे एक "खेल" के रुप में भी अपनाया जाता, तो ठीक था, मगर क्रिकेट को तो यहाँ अब "धर्म" बताये जाने का फैशन है। हालाँकि "धर्म" यह "प्रशंसकों" के लिए है; आयोजकों-प्रायोजकों-क्रिकेटरों के लिए यह "विशुद्ध व्यवसाय" बन चुका है। इसकी चकाचौंध ने अन्यान्य खेलों की चमक को फीका कर दिया है। इसमें "खेल" या "खेल-भावना" तो अब खोजे नहीं मिलेगी। अभी-अभी 'आई.पी.एल.-5' के लिए क्रिकेटर बिके- जैसे सामानों की नीलामी होती है, उसी तर्ज पर!
      "धर्म" या "व्यवसाय" की भावना को भी सहा जा सकता था, मगर आम जनता- खासकर, युवा पीढ़ी के लिए- यह क्रिकेट "अफीम" का काम करने लगा है।
      याद कीजिये- मार्क्स या लेनिन ने "धर्म" को (भारत के सन्दर्भ में) "अफीम" क्यों कहा था? क्योंकि यहाँ का शोषित वर्ग अपनी अवस्था के लिए सत्ताधारियों की नीतियों या व्यवस्था को दोषी नहीं मानता था, बल्कि "पिछले जन्मों" के कर्मों को दोषी ठहराता था। इस प्रकार, धर्म यहाँ के दबे-कुचले लोगों को क्रान्ति करने से रोकता था और उन्हें एक प्रकार से नीन्द में रखता था।
      वही काम आज क्रिकेट कर रहा है। यहाँ के आम लोगों (खासकर युवा पीढ़ी) का ध्यान यह देश-समाज के ज्वलन्त मुद्दों से हटाता है। यहाँ तक कि त्यौहारों को मनाने से भी यह उन्हें विरक्त करता है, क्योंकि क्रिकेट होली-दीवाली-रमजान में भी जारी रहता है! 
      मगर "उम्मीद" है कि अब भी कायम है, और इसकी झलक मिली थी- पिछले वर्ष अन्ना के अनशन के दौरान। कँधों पर तिरंगा लिए "भारत माता की जय" से दिशाओं को गुंजायमान करते हुए देश की जो युवा पीढ़ी सड़कों पर उतरी थी, बेशक वह क्रिकेट को धर्म मानने वाली पीढ़ी ही थी!   
      अर्थात्, सुकान्तो भट्टाचार्य की आशा अब भी कायम है... एक दिन हमारी गर्दन पर सिंह के समान लहराते अयाल उगेंगे... और गुलामी के पट्टे के सारे निशान उसके नीचे छुपेंगे...   नौजवानों के दिलों में देशभक्ति की चिंगारियाँ आज भी सुलग रही हैं... एक दिन "बदलाव" की ज्वाला भड़केगी जरूर...  

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