9 फरवरी 2012 को लिखा गया
कल (8 फरवरी'12) के दैनिक
'हिन्दुस्तान' में पूर्व वायु सेना प्रमुख श्रीनिवासपुरम कृष्णास्वामी ने एक लेख
लिखा है- "स्वदेशी लड़ाकू विमानों से बढ़ती दूरी"। यह एक सटीक एवं तथ्यपरक आलेख है, जिसमें बताया गया है कि
"स्वदेशी लड़ाकू विमान" बनाने की हमारी योजनायें कैसे हमारी विधायिका एवं
कार्यपालिका की लापरवाही, अदूरदर्शिता तथा संवेदनहीनता की भेंट चढ़ गयी; कैसे हमारी
वायु सेना को इनका खामियाजा उठाना पड़ा, और कैसे वायु सेना ने दिलेरी के साथ विषम
परिस्थितियों का सामना करते हुए अपना "मनोबल" बनाये रखा।
लेख की बातों को न दुहराकर मैं सिर्फ उसकी
'टैग-लाईन' को यहाँ उद्धृत करता हूँ- "फ्राँसीसी राफेल विमान खरीदकर
वायु सेना ने अपनी जरूरत तो पूरी कर ली, पर देश के रक्षा उद्योग को अपने पैरों पर
खड़ा करने की कोशिश हार गयी।"
***
अब मैं अपनी ओर से "स्वदेशी युद्धक विमान" बनाने
की एक कार्ययोजना प्रस्तुत करता हूँ:
चरण-1: सबसे पहले तो गर्म हवा से
उड़ने वाले गुब्बारे बनाये जायें। इसके भी कई उपचरण हों। पहले छोटे गुब्बारे बनाये
जायें तथा बाद में 10, 20, 40 लोगों को लेकर दो-एक घण्टों तक उड़ने की काबिलियत
रखने वाले गुब्बारे बनाये जायें। इन गुब्बारा-विमानों का उपयोग "पर्यटन
उद्योग" में किया जा सकता है- जैसे, छतरपुर से खजुराहो तक आने-जाने के लिए।
(कहते हैं कि खजुराहो हवाई अड्डे पर आने-जाने वाले विमानों के कम्पन से मन्दिरों
को नुकसान पहुँचता है।)
चरण-2: वैसे युद्धक विमानों का
निर्माण किया जाय, जिनका उपयोग "प्रथम विश्वयुद्ध" में हुआ था। यकीन
कीजिये, ऐसे विमान बनाना कोई मुश्किल काम नहीं है।
चरण-3: वैसे विमानों का निर्माण किया
जाय, जिनका उपयोग "द्वितीय विश्वयुद्ध" में हुआ था।
चरण-4: हल्के जेट युद्धक विमान बनाये
जायें।
चरण-5: आधुनिक किस्म के युद्धक
विमानों का निर्माण शुरु कर दिया जाय।
मैं नहीं जानता इन चरणॉं में कितना समय
लगेगा; मगर मैं इतना जानता हूँ कि इस अभियान को सिर्फ और सिर्फ
"जुनूनी" किस्म के लोग पूरा कर सकते हैं और वह भी निर्धारित समय
सीमा के पहले! इसके लिए देश तथा दुनिया भर में रहने वाले "भारतीय"
डिजाइनरों, इंजीनियरों, तकनीशियनों के नाम भारत सरकार को बाकायदे एक आह्वान जारी
करना होगा कि मातृभूमि का कर्ज चुकाने का यह एक अवसर है, जो कोई भी इस चुनौती को
स्वीकार करता है, उसका स्वागत है!
***
अब मैं स्वदेशी युद्धक विमानों के "बेड़े" का
काल्पनिक चित्र आपके सामने खींचता हूँ:
युधिष्ठिर:
"टोही" विमान।
अर्जुन:
मुख्य युद्धक विमान।
कर्ण:
मुख्य युद्धक विमान।
(यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि "अर्जुन" तथा
"कर्ण" विमानों के स्क्वाड्रन तो अलग-अलग होंगे ही, उनकी निर्माण इकाई
भी अलग-अलग होनी चाहिए। दोनों स्क्वाड्रनों के विमानचालकों तथा दोनों इकाईयों के
अभियन्ताओं के बीच "श्रेष्ठता" की "मित्रवत्" "जंग"
सदैव जारी रहनी चाहिए!)
भीम:
मुख्य मालवाहक विमान।
नकुल:
युद्धक हेलीकॉप्टर।
सहदेव:
मालवाहक हेलीकॉप्टर।
अभिमन्यु:
सहायक युद्धक विमान।
घटोत्कच:
सहायक मालवाहक विमान।
भीष्म:
प्रशिक्षक विमान- उच्च श्रेणी (जेट)।
द्रोण:
प्रशिक्षक विमान- मध्यम श्रेणी (प्रोपेलर से जेट की ओर बढ़ने के लिए)।
एकलव्य:
प्रशिक्षक विमान- प्राथमिक श्रेणी (बेशक, प्रोपेलर किस्म)।
***
शायद मेरे ये
विचार कभी सरकार तक या वायु सेनाध्यक्ष तक न पहुँचे, मगर अन्त में एक सवाल मैं
सामने रखना चाहूँगा- जो देश अपनी रक्षा-प्रतिरक्षा सामग्रियों का निर्माण स्वयं
न कर सके, क्या उसे स्वतंत्र रहने का नैतिक अधिकार है?
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