शुक्रवार, 8 जून 2012

अखबार बनाम इण्टरनेट


12 फरवरी को लिखा गया 

     पिछले कई दिनों से इस विषय पर लिखने की सोच रहा था। दरअसल, 9 फरवरी के 'हिन्दुस्तान' में उनके एसोशियेट एडीटर हरजिन्दर साहब ने एक आलेख लिखा है- 'प्राइवेसी जब कारोबार बनती है'। इसमें उन्होंने 'गूगल' की नयी प्राइवेसी नीतियों के खतरों के प्रति आगाह करते हुए एक प्रकार से लोगों को नसीहत देने की कोशिश की है कि वे "इण्टरनेट" से दूर ही रहें।

     पहली बात मुझे उस आलेख में यह नजर आयी कि उनके अनुसार, गूगल खोज के परिणाम स्वरुप जो लाखों जानकारियाँ सामने आती हैं, उनमें से पहले 10, 20 या 30 जानकारियाँ उनकी होती हैं, जो गूगल को "सेवा शुल्क" देते हैं। याद दिला दूँ कि यह आरोप दो-तीन साल पहले गूगल पर लगा था, तब बाकायदे गूगल ने इसका जवाब दिया था कि उसके खोज-परिणाम बहुत-सी बातों पर निर्भर करते हैं। मिसाल के तौर पर मैंने हिन्दी में "बनफूल" लिखकर खोज किया, तो जो परिणाम आये, उसमें चौथा परिणाम मेरे ब्लॉग का एक पोस्ट था-  कभी कभार: आज 19 जुलाई है- "बनफूल" का जन्मदिन; इसी प्रकार, छठा परिणाम भी "बनफूल" की एक कहानी का अनुवाद था, जिसे मैंने किया है, और जो "जनोक्ति" में प्रकाशित हुआ है- "बनफूल" की कहानियाँ / 3 अपना-पराया | JANOKTI ।।। । जबकि मैंने गूगल को कोई "सेवा शुल्क" नहीं दिया है। जाहिर है, ये परिणाम "टैग" पर, शब्द की "बारम्बारता" पर, लोगों के लिंक्स पर "क्लिक" किये जाने की संख्या पर तथा अन्य तकनीकी बातों पर निर्भर करता है। "सेवा शुल्क" का सीधा आरोप लगाना एक सम्पादक को शोभा नहीं देता। हालाँकि गूगल एक व्यवसायिक कम्पनी है, अमीर कम्पनी है और चूँकि वह हमसे (खोज परिणाम के बदले) कोई शुल्क नहीं लेता, अतः जाहिर है कि वह विज्ञापनदाताओं तथा उत्पाद-निर्माताओं से पैसे लेता ही है, मगर हमें इण्टरनेट से दूर रहने की नसीहत देना ठीक नहीं है। हम जब भी किसी विषय पर जानकारी चाहते हैं, यह हमें उपलब्ध करा ही देता है।

      दूसरी बात वे कहते हैं कि गूगल हमारी व्यक्तिगत जानकारियों को किसी कम्पनी को बेचकर कमाई कर लेगा। फेसबुक ऐसा करके माफी माँग चुका है और शायद हर्जाना भी भर चुका है। यह कुछ हद तक वाजिब बात है। मगर अपनी जानकारी देना हमपर निर्भर करता है कि हम किस हद तक जानकारियाँ दें। मसलन, फेसबुक पर हम अपने स्थायी शहर या वर्तमान शहर की जानकारी दें या नहीं- यह हमपर निर्भर करता है।

      तीसरी बात वे कहते हैं कि इण्टरनेट पर "गुमनाम" रहकर अपनी भड़ास निकालने की जो सुविधा है, उसका भी दुरूपयोग हुआ है। इसके जवाब में तीन बातें मैं कहना चाहूँगा: पहली, फेसबुक पर मैंने पाया है कि ज्यादातर लोग अपनी वास्तविक पहचान के साथ ही व्यवस्था के प्रति भड़ास निकाल रहे हैं- इक्के-दुक्के लोग ही "छद्म नाम" का उपयोग कर रहे हैं। दूसरी बात, अँग्रेजों के दमन से बचने के लिए धनपत राय ने "प्रेमचन्द" के छद्म नाम का उपयोग किया था तथा बालायचाँद मुखोपाध्याय ने किशोरावस्था में हेडमास्टर साहब की नजर में आने से बचने के लिए "बनफूल" का छद्म नाम अपनाया था। ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जायेंगे और इसमें गलत कुछ भी नहीं है। तीसरी बात, कोई सरकार, या देश का कोई नीति-निर्धारक ऐसा कोई काम करे ही क्यों कि जनता को अपनी भड़ास निकालने का मौका मिले? अब लोग नेताजी सुभाष का जिक्र आते हैं उन्हें सलामी देने लगते हैं, तथा नेहरूजी का जिक्र आते ही भड़ास निकालने लगते हैं, तो इसमें दोष जनता का है, या नेहरूजी का?  

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बात असल में क्या है, यह भी मैं समझ रहा हूँ। तुरन्त घटी किसी घटना या तुरन्त प्रकाश में आये किसी व्यक्ति की "अन्दरुनी" जानकारी पाने के लिए लोग इण्टरनेट का रूख करने लगे हैं और यही बात अखबारों के सम्पादकों को हजम नहीं हो रही है। एक उदाहरण देता हूँ। स्वामी रामदेव पर स्याही फेंकने वाले शख्स की सारी जानकारियाँ तथा छायाचित्र कुछ ही घण्टों में फेसबुक पर उपलब्ध हो गये थे- कि रामविलास पासवान ने उसके एन.जी.ओ. को एम्बुलैन्स दिया था, शीला दीक्षित ने उसे लाखों का चेक दिया था, वह दिग्विजय सिंह का भी करीबी था, वगैरह-वगैरह। ये जानकारियाँ न तो टी.वी. समाचारों में आयीं और न ही अगले दिन के अखबारों में। बात समझ जाईये।

अखबार बड़े मीडिया घरानों द्वारा चलाये जाते हैं और सरकारी विज्ञापन पाने के लिए इन घरानों को सरकारों से सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखने पड़ते हैं। दूसरी बात, सम्पादक इन घरानों की "नौकरी" करते हैं तथा हर लेख के बदले उन्हें पैसे मिलते हैं। इण्टरनेट में ऐसा कुछ नहीं है। यहाँ हर कोई आजाद है और अपनी जेब से रकम खर्च करके अपने विचार, अपनी जानकारियाँ सबके साथ बाँटता है। इस प्रकार, लोगों को "अपडेट" रखने का "अखबारों" का "एकाधिकार" अब टूट रहा है। सामाचारों को अपने "घराने" की नीतियों के अनुसार "फिल्टर" करने उनका अधिकार भी समाप्त हो रहा है।

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      अंत में  हरजिन्दर साहब जैसे पत्रकारों को सलाह है कि इण्टरनेट/ न्यू मीडिया से जलना छोड़  मुख्यधारा की मीडिया के बाजारू चरित्र को बदलने के लिए कुछ चिंतन करें। 

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