शुक्रवार, 8 जून 2012

भारत सरकार का रूख: घर में कुछ, बाहर कुछ


6 फरवरी 2012 को लिखा गया

      संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में भारत ने उस प्रस्ताव का समर्थन किया है, जिसमें सत्ता-विरोधी जनता का समर्थन किया गया है तथा राष्ट्रपति बशर अल असद को सत्ता छोड़ने की नसीहत दी गयी है
      भारत सरकार के रूख में आया यह परिवर्तन आश्चर्यजनक है। क्योंकि आम तौर पर हमारी भीरू सरकारें जमी-जमायी सत्ता को उखाड़ फेंकने की जनता की कोशिशों का समर्थन नहीं करती हैं। जैसे कि जमी-जमायी साम्यवादी सोवियत सरकार के खिलाफ गोर्बाचोव-येल्तसिन के नेतृत्व में रूसी जनता के आन्दोलन को वक्त पर समर्थन देने से हमारी सरकार चूक गयी थी; ...और आज भी बर्मा की जमी-जमायी सैन्य तानाशाही के खिलाफ आंग-सान सू-ची के नेतृत्व में चल रहे बर्मी जनता के आन्दोलन को समर्थन देने से हमारी सरकार कतरा रही है। तिब्बतियों के शान्तिपूर्ण आन्दोलन को खुला समर्थन देने के बारे में तो खैर हमारी सरकार सपने में भी नहीं सोच सकती!
      भारत सरकार के रूख में यह चमत्कारी बदलाव कैसे आया, इस पर अलग से विचार-मन्थन किया जा सकता है; मगर यहाँ विचार सिर्फ इस तथ्य पर किया जायेगा कि भारत सरकार ने आधिकारिक रुप से सीरिया के "जन-विद्रोह" या "बगावत" का समर्थन कर दिया है! यानि भारत सरकार उस राजनीतिक सिद्धान्त को मानने लगी है, जिसके अन्तर्गत 'सत्ता के खिलाफ देश भर में उठ रहे जनाक्रोश का सम्मान करते हुए सत्ताधारी को सत्ता त्याग देनी चाहिए!'
      अब इस सिद्धान्त के आलोक में हम सीरिया और भारत की स्थितियों की तुलना करते हैं। सीरिया में जनता राष्ट्रपति असद के शासन के खिलाफ आक्रोशित है, तो भारत में जनता एक वंश-विशेष के शासन के खिलाफ आक्रोशित है। सीरिया में जनता के हाथों में घातक हथियार है, तो यहाँ देश का राष्ट्रध्वज है। वहाँ विद्रोही नेता बख्तरबन्द जीपों से रॉकेट दाग रहे हैं, तो यहाँ विद्रोह का नेतृत्व करने वाले अनशन-सत्याग्रह कर रहे हैं तथा अदालतों में कानूनी लड़ाईयाँ लड़ रहे हैं। वहाँ विद्रोह को कुचलने के लिए सरकार सेना के टैंकों का इस्तेमाल कर रही है, तो यहाँ विद्रोहियों को बे-इज्जत करने के लिए आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय वगैरह को उतारा जाता है। स्थितियाँ एक-जैसी ही हैं, सिर्फ "विरोध" व उसके "दमन" का तरीका अलग है। ऐसा "भारतीयों" के "स्वभाव" के कारण है- वे जल्दी खून-खराबे पर नहीं उतरते।
      अब बड़ा सवाल यह है कि उपरोक्त राजनीतिक सिद्धान्त को भारत में ही लागू करने के बारे में सरकार की क्या राय है? बेशक, सरकार तथा उसके समर्थक नागरिक "2014" के आम चुनाव का हवाला देंगे। ठीक है, जब इतने साल झेल लिये हैं तो दो साल और सही। मगर एक शंका भी है.... अपनी हार आसन्न देखकर अगर सरकार ने "आपातकाल"-अस्त्र का उपयोग कर लिया, तब क्या होगा...? क्या तब भी जनता तिरंगा लेकर अनशन-सत्याग्रह से ही जवाब देगी, या............ 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें