'खाद्य सुरक्षा विधेयक' के बड़े चर्चे हो रहे हैं- इसे 'जादू की छड़ी' के रुप
में प्रचारित किया जा रहा है।
इसके पीछे दो कारण हैं- एक 'तात्कालिक';
दूसरा 'दीर्घकालिक'।
'तात्कालिक' कारण सबको दीख रहा है- कुछ ही महीनों में होने वाला आम
चुनाव। जैसे पिछले आम चुनाव से पहले प्रचारित किया गया था कि 'मनरेगा' के तहत सभी
गरीबों को साल में 100 दिनों का रोजगार गारण्टी के साथ मिलेगा, वैसे ही आगामी आम
चुनाव से पहले प्रचारित करने की योजना है कि सभी गरीबों को सस्ते में अनाज मिलेगा।
लेकिन जो 'दीर्घकालिक' कारण है इस योजना के
पीछे, उसपर सबका ध्यान नहीं जाता है।
भारत ने जिस "लंगोटिया पूँजीवाद" (भ्रष्ट एवं अनैतिक
उपाय अपनाकर, देश के संसाधनों को लूटकर खुद को तथा अपने नाते-रिश्तेदारों,
परिचितों को फायदा पहुँचाने वाला पूँजीवाद) को अपना रखा है, उसके तहत 'खाद्य
सुरक्षा'-जैसे उपाय अपनाना सरकार की मजबूरी है।
पूँजीवाद की इस विकृत अवधारणा को जोर-शोर
से अपनाने के कारण हमारे देश की ज्यादातर पूँजी कुछ परिवारों की मुट्ठियों में कैद
हो गयी है और यह प्रक्रिया तेजी के साथ जारी भी है। कोई भी राजनीतिक दल या कोई भी
लोकतांत्रिक सरकार अब इस "प्रक्रिया" को नहीं रोक सकती।
जो भी सरकार इस देश में बनेगी, जिस किसी दल के हाथ में राजसत्ता
होगी, उसे इस "लंगोटिया पूँजीवाद" के सामने नतमस्तक होना ही पड़ेगा और
'मनरेगा' तथा 'खाद्य सुरक्षा'-जैसे कार्यक्रम चलाने ही पड़ेंगे- ताकि-
1.
गरीब जनता अमीरों तथा सत्ताधारियों के खिलाफ "सड़कों पर न उतरे"
और
2. कोई गरीब "भूख से न मरे"! (भूख
से मौत होने पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनामी होती है।)
सभी जानते हैं कि जो व्यक्ति, समाज या कौम "टुकड़ों पर
पले", वह कभी स्वाभिमानी और खुद्दार नहीं हो सकता, इसलिए देश के पूँजीपतियों
तथा सत्ताधारियों का वर्ग, 'विश्व-बैंक' वगैरह से मिलकर देश में "रोजगार के
अवसर" पैदा नहीं कर रहा है, बल्कि उन्हें एक तरह से "टुकड़ों पर
पालने" की सजिश रच रहा है। और हाँ, बिना "ऑडिट" की व्यवस्था किये
पंचायतों को अनाप-शनाप फण्ड देकर आम जनता की ईमानदारी को भी खत्म करने की साजिश
रची जा रही है।
जब आम जनता स्वाभिमानी, खुद्दार, ईमानदार नहीं होगी, तो इन भ्रष्ट
पूँजीपतियों तथा सत्ताधारियों का कौन क्या बिगाड़ लेगा?
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