गुरुवार, 2 मई 2013

134. आज क्षणिक आक्रोश नहीं, गहन चिन्तन



       लीजिये, एकबार फिर देश का समाज उबल पड़ा है- देश की पिलपिली, लिजलिजी, लुँज-पुँज विदेश-नीति पर! (सन्दर्भ: पाकिस्तान में सरबजीत की हत्या।)
       जी न्यूज पर देखा- एक जनमत-संग्रह में 90 फीसदी से ज्यादा लोग भारत को 'शक्तिशाली' देश मानने से इन्कार कर रहे हैं
       सोचने लगा- क्यों है देश की यह दुर्दशा? क्या कभी यह देश शक्तिशाली नहीं बनेगा? कभी इस देश के वासी दुनिया में गर्व से सीना तानकर सर उठाकर नहीं चल सकेंगे?  
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विविधता से भरे किसी बड़े समाज या महादेश-जैसे किसी बड़े राष्ट्र की पूरी-की-पूरी आबादी तो खैर साहसी और प्रतिभाशाली नहीं हो सकती (छोटे समाज और राष्ट्र में यह सम्भव है), मगर उस आबादी का फर्ज बनता है कि वह किसी साहसी और प्रतिभाशाली शख्स को ही अपना नेता चुने। न केवल नेता चुने, बल्कि उसकी बातों को माने।
नियति ने भारत को यह अवसर दिया था- नेताजी सुभाष के रुप में। कुछ लोगों ने उनका साथ दिया भी, मगर ज्यादातर लोगों को उनकी "बगावत", "क्रान्ति" और "युद्ध" की बातें रास नहीं आयी। लोगों को "शान्ति", "क्षमा", "प्रेम" में ज्यादा रस आ रहा था। नतीजा यह हुआ कि जब वे भारत को आजाद कराने के लिए सेना लेकर सीमा पर पहुँचे, तो न तो देश के नागरिकों ने उनका साथ दिया और न ही सेना के भारतीय जवानों ने।
अपनी उस पीढ़ी की इस गलती का परिणाम हम तीसरी-चौथी पीढ़ी वाले आज भोग रहे हैं!
देश को नेताजी-जैसे चरित्रवान, वीर, सुपुरूष नायक का नेतृत्व नहीं मिल सका। उसके स्थान पर मिला नेहरूजी का नेतृत्व, जो स्वयं चरित्र से कमजोर, स्वभाव से भीरू थे और जिनके चेहरे पर कोई तेज नहीं था। एक बहुत ही घटिया किस्म की व्यवस्था का बीज उन्होंने इस देश में बो दिया। ...परिणाम हमारे सामने है।
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मगर आज क्या कहीं कुछ बदला है? क्या हमने अपनी पुरानी पीढ़ी की गलती से कुछ सीखा है?
नहीं तो!
हमें साफ दीख रहा है कि हमारी व्यवस्था सड़ गयी है, बदबू मार रही है, इसे जितनी जल्दी हो सके जला डालने या दफना देने की जरुरत है... मगर क्या मजाल, जो हम "बगावत", "क्रान्ति" या "युद्ध" की बात सोच लें!
हम तो आज भी इसी व्यवस्था से उम्मीद पाले हुए हैं... हमें तो बस "सत्ता-हस्तांतरण" चाहिए... इसने खूब लूटा, अब इसे हटाओ, उसे सत्ता सौंप दो... उसे भी लूटने का मौका मिले... फिर जब वह बहुत लूट ले, फिर एकबार सत्ता-हस्तांतरण कर दो... ।
अरे, जब हम देख रहे हैं कि इस सड़ी हुई चुनाव-प्रणाली के तहत 98-99 फीसदी करोड़पति-अरबपति, अपराधी-माफिया, बेईमान-चरित्रहीन-गद्दार ही चुनकर आयेंगे, तो फिर इसी व्यवस्था से उम्मीद क्यों?
बगावत क्यों नहीं, क्रान्ति क्यों नहीं और युद्ध क्यों नहीं?
न तो देश के नागरिकों में सम्पूर्ण बदलाव की चाहत दीख रही है, न ही सेना के जवानों में।
ठीक है कि नेताजी-जैसा कोई व्यक्तित्व आज हमारे सामने नहीं है, मगर यह देश "अच्छे लोगों" से रहित हो गया है- ऐसा तो नहीं है न! ऐसे लोगों के एक समूह को हम देश चलाने का मौका क्यों नहीं दे सकते?
मगर नहीं... शायद इतिहास अपने-आप को दुहराने वाला है...
शायद हमारी आने वाली तीसरी-चौथी पीढ़ी भी हमें कोसने वाली है...
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