हाल
में 'शारदा' चिट फण्ड कम्पनी का घोटाला उजागर होने के बाद से (राँची से प्रकाशित)
एक अखबार धारावाहिक रुप से "चिट फण्ड कथा" प्रकाशित कर रहा है, जिसमें
इस तरह की विभिन्न कम्पनियों के कच्चे चिट्ठे खोले जा रहे हैं। इसकी 17-18 किस्त प्रकाशित हो चुकी है और आगे भी, लगता है, यह कथा जारी रहेगी। इसी से अनुमान लगाया जा
सकता है कि धोखेबाज चिट फण्ड कम्पनियों का मकड़जाल कितना बड़ा है।
सरसरी निगाह से देखने पर यही लगता है कि
लोग 'लालच' या 'मजबूरी', या फिर, दोनों के कारणों इस जाल में फँसते हैं। इस लालच
और मजबूरी के पीछे है हमारी राष्ट्रीय बैंकों की नीति एवं कार्य-प्रणाली, जो
1. देश के दूर-दराज के इलाकों में प्रभावशाली ढंग से मौजूद नहीं
है,
2. बचत पर बहुत ही कम ब्याज देती है- खासकर, छोटी बचत पर, (जबकि
कर्ज पर बहुत ज्यादा ब्याज लेती है)
3. आम तौर पर यहाँ प्रभावशाली लोगों का स्वागत किया जाता है, जबकि
गरीबों को दुत्कारा जाता है।
अपने देश में बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण भले हो गया है, मगर देश
के सामाजार्थिक उत्थान को ध्यान में रखकर एक "राष्ट्रीय बैंकिंग नीति"
नहीं बनी है, फलस्वरुप आज भी "राष्ट्रीय" बैंक ज्यादा-से-ज्यादा
"मुनाफा" कमाने की नीति पर चलते हैं।
***
यहाँ बैंकिंग-प्रणाली के "कायाकल्प" के लिए सुझाव
प्रस्तुत किये जा रहे हैं- नक्कारखाने में तूती की आवाज की तर्ज पर:
बचत पर ब्याज:
आज एक गरीब चाहे पेट काटकर हजार रुपया बैंक
में जमा करे, या एक कालाबाजारी करोड़ रुपया, दोनों को एक समान दर से जमापूँजी पर
ब्याज मिलता है। क्या यह सही है? क्या 1 हजार रुपये तक की जमापूँजी पर 15 प्रतिशत
की दर से और 1 करोड़ रुपये तक की जमापूँजी पर 3 प्रतिशत की दर से ब्याज नहीं मिलना
चाहिए? इसी प्रकार, 10 हजार तक की बचत पर 12 प्रतिशत, 1 लाख तक की बचत पर 9
प्रतिशत और 10 लाख तक की बचत पर 6 प्रतिशत की दर से ब्याज मिलना चाहिए। 1 करोड़
रुपये से ज्यादा की जमापूँजी पर बेशक, कोई ब्याज नहीं मिलना चाहिए और 10 करोड़ से
ज्यादा की रकम पर तो बैंकों को ब्याज "देने" के बजाय ब्याज
"वसूलना" चाहिए- पूँजी को "सुरक्षित" रखने के एवज में!
ऋण पर ब्याज:
आज एक बेरोजगार युवक छोटा-मोटा व्यवसाय
शुरु करने के लिए 10 हजार रुपया कर्ज ले, या एक बड़ा औद्योगिक घराना विमानन कम्पनी
शुरु करने के लिए 10 करोड़ ले, दोनों को लगभग समान दर से ब्याज चुकाना पड़ता है। यह
कैसा न्याय है? होना तो यह चाहिए कि 10 हजार रुपये तक का कर्ज लेने वाले से सिर्फ
1 प्रतिशत की दर से ब्याज लिया लिया जाय। इसी प्रकार, 1 लाख तक के कर्ज पर 3
प्रतिशत, 10 लाख तक के कर्ज पर 6 प्रतिशत, 1 करोड़ तक के कर्ज पर 9 प्रतिशत, 10
करोड़ तक के कर्ज पर 12 प्रतिशत और इससे बड़े कर्ज पर 15 प्रतिशत की दर से ब्याज
लिया जाना चाहिए।
मेरे हिसाब से, 1 हजार रुपये तक का कर्ज
"ब्याजमुक्त" होना चाहिए- यानि ग्राहकों को यह अवसर मिलना चाहिए कि वे
अपने बचत खाता से "शून्य" राशि के बाद भी 1 हजार तक की रकम आवश्यकता पड़ने
पर निकाल सकें! यह मत सोचिये कि सभी ऐसा करने लगेंगे- आखिर 1 हजार तक की बचत पर 15
प्रतिशत का ब्याज कौन छोड़ना चाहेगा भला? बहुत "मजबूरी" में ही कोई शून्य
राशि के बाद रकम निकालना चाहेगा।
ऐसा भी सोचना गलत होगा कि इससे बैंक घाटे
में चले जायेंगे। आज लोग कर्ज तो ले लेते हैं, मगर ब्याज चुकाने में उनका दम
निकलने लगता है; बहुत-से लोगों को आत्महत्या करनी पड़ती है; बैंकों के बहुत-से कर्ज
डूब जाते हैं, और कर्ज वसूलने के लिए बैंकों को अलग से विभाग या व्यवस्था बनानी
पड़ती है। जो सुझाव दिये गये हैं, उनपर अमल करने से उपर्युक्त स्थितियाँ पैदा नहीं
होंगी, फलतः बैंकों को नुक्सान नहीं होगा। हाँ, देशवासियों का भला जरूर हो जायेगा।
शाखाओं की संरचना:
बैंकों की शाखाओं की संरचना इस प्रकार की होनी चाहिए कि प्रत्येक
पंचायत व वार्ड में बैंक की कम-से-कम 1 "छोटी" शाखा हो; इसी प्रकार, प्रत्येक
प्रखण्ड, नगर या उपमहानगर में न्यूनतम 2 "मँझली" शाखायें हों, और
प्रत्येक जिले और महानगर में कम-से-कम 3 "बड़ी" शाखायें हों। इनके अलावे,
बैंकों की "राज्य स्तरीय", "अंचल स्तरीय" और
"राष्ट्रीय" शाखायें भी होनी चाहिए। एक राज्य में कम-से-कम 4 राज्य
स्तरीय शाखायें, एक अँचल (यहाँ अँचल का तात्पर्य देश के उत्तर-पूर्वांचल,
पूर्वांचल, पश्चिमांचल, उत्तरांचल, दक्षिणांचल, और मध्यांचल भाग से है) में
कम-से-कम 5 अँचल स्तरीय शाखायें, तथा देशभर में कम-से-कम 6 राष्ट्रीय शाखायें तो
होनी ही चाहिए।
जहाँ तक प्रशासनिक ढाँचे की बात है, बैंकों के मुख्यालय तीन स्तरों
पर हो सकते हैं- राष्ट्रीय, आँचलिक तथा राज्य स्तर पर।
लेन-देन की सीमा:
छोटी शाखाओं में एक व्यक्ति को एकदिन में
10 हजार रुपये से ज्यादा का लेन-देन नहीं करने देना चाहिए; इसी प्रकार, मँझली
शाखाओं में लेन-देन की सीमा हो 1 लाख रुपये और बड़ी शाखाओं की सीमा हो 10 लाख रुपये।
इसी अनुपात में बेशक, राज्य स्तरीय शाखाओं में एक व्यक्ति (ग्राहक) द्वारा एक दिन
में लेन-देन की सीमा होनी चाहिए 1 करोड़ और अँचल स्तरीय शाखाओं के की सीमा होनी
चाहिए 10 करोड़ रुपये। अगर कोई व्यक्ति या कम्पनी एक दिन में 10 करोड़ रुपये से
ज्यादा के लेन-देन की क्षमता रखती हो, तो बेशक उसका खाता राष्ट्रीय शाखा में ही
होना चाहिए- कहीं और नहीं!
कर्ज देने के मामले में भी यही नियम लागू
होने चाहिए- यानि 10 हजार तक के कर्ज "छोटी" शाखाओं से मिलने चाहिए; 1
लाख तक के कर्ज "मँझली" शाखाओं से; 10 लाख तक के कर्ज "बड़ी"
शाखाओं से; 1 करोड़ तक के कर्ज "राज्य स्तरीय" शाखाओं से; 10 करोड़ तक के
कर्ज "आँचलिक" शाखाओं से और इससे बड़े कर्ज सिर्फ "राष्ट्रीय"
शाखाओं से दिये जाने चाहिए।
खाता संख्या:
आज हर बैंक अलग-अलग ढंग की खाता-संख्या देता
है, फलस्वरुप एक नागरिक के बहुत सारे खाते हो सकते हैं। दूसरी तरफ, खाता खोलने के
लिए ग्राहक से तरह-तरह के पहचान-सबूत माँगे जाते हैं। इन दोनों समस्याओं का एक ही
समाधान है- "बहुद्देशीय राष्ट्रीय नागरिक पहचानपत्र"।
मेरी समझ में यह नहीं आता है कि देश को चलाने वाले इतने
"अदूरदर्शी" कैसे हो सकते हैं? उन्होंने अभी तक एक "बहुद्देशीय
राष्ट्रीय नागरिक पहचानपत्र" के बारे में सोचा क्यों नहीं है?
सरकार को चाहिए कि वह "मतदाता पहचानपत्र", "पैन
कार्ड" और "आधार कार्ड" को मिलाते हुए "बहुद्देशीय राष्ट्रीय
नागरिक पहचानपत्र" जारी करना शुरु करे और इसकी संख्या को ही बैंकों में
"खाता संख्या" के रुप में दर्ज किया जाय। इससे एक बैंक की सेवा पसन्द न
आने पर ग्राहक आसानी से अपना बैंक बदल भी सकेंगे। इस तरह के पहचानपत्र जारी करने
के लिए अगर चुनाव आयोग में "पूर्णकालिक" स्टाफ की भर्ती करनी पड़ी,
पंचायत/वार्ड स्तर तक कार्यालय स्थापित करना पड़े, तो ऐसा किया जाना चाहिए। ये
कर्मी चुनाव के दौरान "मतदानकर्मी" तथा बाकी समय में
"पहचानपत्रकर्मी" की भूमिका निभा सकेंगे।
मानवशक्ति:
एक विचित्र प्रथा "नौकरियों" में प्रचलित है- कर्मियों
को उनके घर से जहाँ तक हो सके, दूर रखने की। मुझे इस प्रथा के पीछे कोई तुक नजर
नहीं आता। मेरा मानना है कि बैंक ही नहीं, किसी भी विभाग में कर्मचारी- खासकर,
निचले पाँवदान के कर्मचारी विशुद्ध रुप से "स्थानीय" होने चाहिए और
मानवशक्ति (व्यक्तिगत रुप से मैं मानव-"संसाधन" शब्द का घोर विरोधी
हूँ!) के चयन की जो प्रक्रिया है, उसके "विकेन्द्रीकरण" का हिमायती हूँ।
मेरे हिसाब से, श्रमिक वर्ग के कर्मियों को उनके गृह पंचायत/वार्ड में पदस्थापित
किया जाना चाहिए; लिपिक वर्ग के कर्मियों को गृह प्रखण्ड/नगर/उपमहानगर में; पर्यवेक्षक
वर्ग के कर्मियों को उनके गृह राज्य में और कनिष्ठ अधिकारियों को उनके गृह अँचल
में पदस्थापना देनी चाहिए। हाँ, वरिष्ठ अधिकारियों को देशभर में कहीं भी पदस्थापना
दी जा सकती है।
अन्त में:
अगर सरकार को लगे कि वर्तमान में जो "राष्ट्रीयकृत" बैंक
देश में हैं, उन्हें इन नीतियों के पालन के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता और न ही
भारतीय रिजर्व बैंक को इनके लिए राजी किया जा सकता है, तो सरकार को भारतीय रेल सेवा,
भारतीय डाक सेवा की तर्ज पर एक भारतीय बैंकिंग सेवा की स्थापना के बारे में सोचना चाहिए, जो
रिजर्व बैंक के नियंत्रण से मुक्त हो; जो "मुनाफा" कमाने के बजाय देश के
"सामाजार्थिक" उत्थान को अपना मूलमंत्र बनाये और जो उपर्युक्त नीतियों
को लागू करे।
देख लीजियेगा- एक-एक कर सारे बैंक इन नीतियों को अपनाने के लिए बाध्य
हो जायेंगे। उनके यहाँ जायेगा ही कौन- खाता खुलवाने या कर्ज लेने (2-1 प्रतिशत पूँजीपतियों को छोड़कर)???
*****पुनश्च:
बैंक अपने शिक्षित ग्राहकों को एक खास "टैबलेट" जारी करे, जो
ग्राहक के अँगूठे (या किसी भी एक उँगली) के निशान से संचालित होगा- इस टैबलेट के
माध्यम से ग्राहक एक-दूसरे के खाते में आसानी से लेन-देन कर सकेंगे।
(जैसे
कि- ग्राहक 'क' पैसे देना चाहता है 'ख' को; वह अपने टैबलेट पर 'ख' की खाता संख्या-
जो कि वास्तव में नागरिकता संख्या है- टाईप करता है; 'ख' का फोटो, नाम, स्थान,
कम्पनी इत्यादि स्क्रीन पर उभर आते हैं; अगर जानकरियाँ सही हैं, तो 'क' राशि टाईप
कर आगे बढ़ता है; 'ख' को सन्देश प्राप्त होता है, साथ ही वह 'क' का फोटो आदि देख
सकता है; अगर जानकरी सही है, तो वह सहमति देता है; 'क' को सहमति का सन्देश प्राप्त
होता है; और फिर वह पैसे भेज देता है; अन्त में, दोनों को पैसे के लेन-देन का
सन्देश प्राप्त होता है। नोट- भूलवश हुए लेन-देन को सुधारने का अधिकार तो
बैंक की शाखाओं के पास होगा ही; साथ ही, भूल लेन-देन को स्वीकार करनेवाले ग्राहक
पर मामूली अर्थदण्ड लगाने पर भी विचार किया जा सकता है।)
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