रविवार, 7 अक्टूबर 2012

"भारतीय राजनीति सड़ गयी है..."


‘फेसबुक’ पर मेरा दायरा छोटा-सा है- ढाई-तीन सौ साथियों का। इस छोटे-से दायरे में भी शायद तीन या चार साथी ही ऐसे हैं, जो मेरी तरह सोचते हैं कि इस अनैतिक शासन-व्यवस्था, भ्रष्ट प्रशासन-व्यवस्था, अमीरपरस्त आर्थिक-व्यवस्था, भेद-भाव बनाये रखने वाली सामाजिक-व्यवस्था, हीन-भावना भरने वाली सांस्कृतिक-व्यवस्था, संसाधनों की लूट-खसोट वाली पर्यावरण-व्यवस्था, इत्यादि को जड़ से उखाड़ फेंकने की जरुरत है और इसके स्थान पर नयी व्यवस्था कायम करनी है।
देश की समस्त जनसंख्या पर भी यही अनुपात लागू होता होगा- 25-30 प्रतिशत लोग ही देश के बारे में सोचते होंगे और 2-3 प्रतिशत ही क्रान्तिकारी बदलाव चाहते होंगे। जनसंख्या का आधा से ज्यादा हिस्सा यह मानकर चलता होगा कि- ‘इस देश का कुछ नहीं हो सकता’ या ‘सब ऐसे ही चलते रहेगा’! एक छोटे हिस्से को यही व्यवस्था पसन्द होगी। जो 25-30 प्रतिशत हिस्सा बदलाव चाहता है, उनकी भी सोच का दायरा सीमित है- वे एक व्यक्ति-विशेष की आभा-मण्डल से बाहर आ ही नहीं सकते।
हालाँकि मैं इतना मानकर चलता हूँ कि मैं जैसा सोच रहा हूँ- आगे चलकर घटानाक्रम वैसे ही मोड़ लेंगे; फिर भी, अक्सर मुझे आश्चर्य होता है कि हम भारतीय लीक से हटकर कुछ नया सोचने से क्यों बचते हैं? क्यों हम अभी तक इसी मुगालते में जी रहे हैं कि हमारा देश एक महान लोकतांत्रिक देश है और यहाँ बदलाव धीरे-धीरे ही आयेगा? लोकतंत्र का एक भी सबूत है किसी कि पास? और धीरे-धीरे के नाम पर जो 65 वर्ष खर्च हो गये, यह क्या कम है? आजादी के 65 वर्षों के बाद क्यों परसों सर्वोच्च न्यायालय को आदेश देना पड़ा कि सरकारें हर विद्यालय में शौचालय की- खासकर लड़कियों के लिए शौचालय की- व्यवस्था करे?
खैर, जब मैं सड़ी-गली इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की बात करता हूँ, तो सबको बकवास लगता होगा। मगर आज मैंने देखा कि ‘प्रभात खबर’ के सम्पादक हरिवंश जी भी यही भाषा बोल रहे हैं-
कहीं आपने भारत के किसी दल या राजनीतिक खेमे में यह चर्चा सुनी कि इस देश को महान बनाने का दस्तावेज हमने तैयार किया है। हम इस राष्ट्रीय बहस चला रहे हैं। हम गाँव-गाँव जायेंगे, घर-घर जायेंगे और राजनीति में नयी इबारत लिखेंगे। भारतीय राजनीति सड़ गयी है। इसकी मौजूदा लाश को तुरन्त दफना देशा ही शुभ होगा। इसमें नयी हवा, नयी ऊर्जा चाहिए। नयी दृष्टि, नये विचार की ताकत चाहिए और नया खून चाहिए, तब शायद कहीं मौलिक ढंग से अपनी चुनौतियों को हम देख-समझ पायेंगे।
हालाँकि बुद्धिजीवियों से भी मुझे शिकायत है- वे समस्याओं की नीर-क्षीर विवेचना करते हैं, मगर समाधानों की बात प्रस्तुत होते ही नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। देख लीजियेगा- हरिवंश जी से मैं ‘इस देश को महान बनाने का दस्तावेज’ के रुप में अपने घोषणापत्र का लिंक भेजूँगा और उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयेगी- जैसा कि बाकी बुद्धीजीवियों/सम्पादकों के मामले में होता आया है। हाँ, प्रभात खबर एक मशीनी ई-मेल जरुर भेजता है- कि हम जल्द ही आपसे सम्पर्क करेंगे और वह ‘जल्द ही’ कभी नहीं आता!    

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