रविवार, 21 अक्टूबर 2012

देश की स्थिति और मेरा सपना


मैं नहीं जानता कि मेरे विचार हरिवंश जी (राँची से प्रकाशित दैनिक ‘प्रभात खबर’ के सम्पादक महोदय) से हु-ब-हु क्यों मेल खाते हैं? हाँ, चूँकि वे एक पत्रकार हैं, जिनका दायित्व होता है- समाज एवं राष्ट्र को आईना दिखाना, इसलिए वे परिस्थितियों की भयावहता को सामने रखकर छोड़ देते हैं; जबकि मैं खुद को एक ‘विचारक’ के साथ-साथ देश का भावी ‘स्टेट्समैन’ भी मानता हूँ और सपना देखता हूँ कि मेरे दिशा-निर्देशों पर चलकर यह देश न केवल एक दिन खुशहाल, स्वावलम्बी एवं शक्तिशाली बनेगा, बल्कि इस देश के नेतृत्व में एक दिन आदर्श विश्व व्यवस्था भी कायम होगी
      खैर, आज के अपने रविवासरीय स्तम्भ ‘समय से संवाद’ (15-16 साल पहले जब मैं अपने घोषणापत्र पर काम कर रहा था, तब मैं दैनिक ‘जनसत्ता’ के रविवासरीय सम्पादकीय स्तम्भ ‘कागद कारे’ से प्रेरणा लिया करता था। इसे स्वर्गीय प्रभाष जोशी जी लिखा करते थे। राजेन्द्र माथुर जी पहले ही दिवंगत हो चुके थे, फिर भी, उनकी रचनाओं से भी मैंने प्रेरणा ग्रहण की थी। इन दोनों पत्रकारों के अलावे व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई जी के चुटीले व्यंग्यों ने भी मेरे चिन्तन-मनन को धार दिया था।) में आज उन्होंने जो लिखा है (नयी जाति की पहचान), उसे पढ़कर मैं निम्न विन्दुओं को नोट करता हूँ:-
1.   अरविन्द केजरीवाल को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उनके प्रयासों से कमोबेश सभी राजनीतिक दलों के राजनेता एक ही जमीन या मंच पर खड़े नजर आ रहे हैं।
2.  देश में एक प्रकार की राजशाही चल रही है- राजा का बेटा ही राजा बन रहा है, चाहे वह योग्य हो, या न हो।
3.  सत्ता अमीरों के हाथ में चली गयी है, तो कैसे उम्मीद की जाय कि ये लोग गरीबोन्मुख या आम जनता के हितों को ध्यान में रखकर नीतियाँ बनायेंगे?
4.  यूँ तो आर्थिक-विषमता सारे विश्व में बढ़ रही है, मगर भारत में यह विषमता तेजी से बढ़ रही है। शिकागो विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री रघुराम राजन को डर है कि क्या भारत एक विषम कुलीनतंत्र या बदतर (Unequal Oligarchy or Worse) स्थिति की ओर बढ़ रहा है?
5.  प्रायः सभी दलों में तानाशाही कायम है, भले इसे तानाशाही न कहकर आला-कमान कहा जा रहा है। जेपी और आचार्य कृपलानी कहा करते थे- जिन दलों के अन्दर लोकतंत्र नहीं है, वे लोकतंत्र के प्रहरी कैसे बन सकते हैं? दल के अन्दर तानाशाही और देश के लोकतंत्र की बागडोर के सूत्रधार!
6.  पहले दलों की घरेलू नीति, विदेशनीति, अर्थनीति घोषित तथा सार्वजनिक होती थी, अब सरकार में शामिल होकर या सरकार से बाहर आकर अचानक नयी नीतियाँ घोषित की जाती हैं।
7.  अगर हम एक-एक कर सभी राजनेताओं की पोल खोल दें, मगर विकल्प (दुहरा दूँ, विकल्प, यह बेहद महत्वपूर्ण है और देश की राजनीति में आज सबसे ज्यादा उपेक्षित है। मैंने अप्रत्यक्ष तरीके से एकबार इसी मुद्दे पर केजरीवाल साहब को चेताया था कि वे दिल्ली से बाहर निकलें, पंचायत से लेकर राजधानी तक दल की कार्यकारिणी बनायें, घोषणापत्र बनायें, दिग्गजों का समर्थन हासिल करें, न कि सड़कों पर घेराव-प्रदर्शन; बशर्ते कि देश की राजनीति का विकल्प प्रस्तुत करने की इच्छा हो!) न प्रस्तुत करें, तो क्या होगा? बेशक, देश की बची-खुची साख भी मिट्टी में मिल जायेगी।
8.  अन्त में, हरिवंश जी ने चर्चिल के विश्वविख्यात कथन को याद किया है- 50 साल गुजर जाने दीजिये, आजादी के बड़े नेताओं को दुनिया से विदा होने दीजिये, फिर देखिये भारत का हाल, कि कैसे-कैसे गन्दे, अराजक, देशतोड़क, अयोग्य, भ्रष्ट तथा आपराधिक रुझान वाले नेता देश को चलाते हैं और कैसे इस देश को तिनकों की तरह बिखेर देते हैं!
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अपनी ओर से मैं यही कहूँगा कि लोहा ही लोहा को काटता है। देश में एक प्रकार की बुरी तानाशाही कायम है, और इसे एक अच्छी तानाशाही से ही समाप्त किया जा सकता है। इस देश को महान बनाने का और दुनिया में आदर्श व्यवस्था कायम करने का पूरा खाका मेरे दिमाग में मौजूद है, मैं इस कार्य के लिए योग्य हूँ और शायद मेरा जन्म इसी कार्य के लिए हुआ है। अगर देशवासी मेरी बातों को और मेरे घोषणापत्र (http://jaydeepmanifesto.blogspot.in/) को समय रहते समझ लें, तो बहुत अच्छा, वर्ना मेरा क्या, मैं तो एक कलाकार भी हूँ- चित्रकारी करते हुए दिन गुजार लूँगा... 


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