सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

तिब्बत की आजादी को नैतिक समर्थन देना चाहिए





15 अक्तूबर के प्रभात खबर में प्रफुल्ल बिदवई नामक एक वरिष्ठ पत्रकार लिखते हैं कि हमें 1960 में चीन को अक्षय चिन पर अधिकार दे देना चाहिए था- उनके शब्दों में- यह बेहद व्यवहारिक होता, क्योंकि अक्साई चिन चीन के लिए महत्वपूर्ण है, भारत के लिए इसका महत्व नहीं, बल्कि अरूणाचल प्रदेश का (महत्व) है
      उनके अनुसार, घरेलू दवाब में आकर नेहरूजी ने ‘कड़ा’ रूख अपनाया, जिस कारण बेचारे चीन को ‘62 में भारत पर आक्रमण करना पड़ा
      वे भारतीय वायु सेना के इस दावे का भी मजाक उड़ाते हैं कि ’62 के युद्ध में भारतीय वायुसेना को आक्रमण की अनुमति दे दी गयी होती, तो युद्ध का पासा पलट सकता था।
      मैं नहीं जानता, ये बिदवई साहब किस विचारधारा के पत्रकार हैं- शायद ये कोई घोर साम्यवादी हों, जो भारतीय हिस्सों पर चीन के कब्जे को साम्यवाद का विस्तार मानते हों; या खांटी नेहरूभक्त हों; या फिर, एक कायर हों! अगर इन्हें देशद्रोही भी कहा जाय, तो कम-से-कम मेरी नजर में तो अतिशयोक्ति नहीं होगी!
      मेरे हिसाब से, भारत को 1951 से ही चीन द्वारा तिब्बत के बलात् अधिग्रहण का विरोध करना चाहिए था और आज भी भारत को खुलकर तिब्बत की आजादी का समर्थन करना चाहिए। बेशक, भारत को इसके लिए सैन्य गतिविधियाँ चलाने की जरुरत नहीं है, बस नैतिक समर्थन ही काफी है।
      तिब्बत के नक्शे को ध्यान से देखने पर हम पाते हैं कि अगर तिब्बत आजाद होता है, तो भारत की सीमा चीन से लगेगी ही नहीं! तिब्बत पर बलात् कब्जा जमाने के बाद ही चीन ने भारतीय हिस्सों पर दावा करना शुरु किया था। जबकि तिब्बत पर और हिमालय के इस पार चीन का कोई हक नहीं बनता।
      मैं नहीं समझता कि सही को सही व गलत को गलत कहने से किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र को डरना चाहिए- परिणाम चाहे जो भी हो!  
     रही बात प्रतिआक्रमण की, तो साँप-जैसा निकृष्ट जीव भी- जो अपने सीने को जमीन पर घसीट कर चलता है- आघात पाने पर सीना तानकर फुँफकार उठता है और मरने-मारने को तैयार हो जाता है; हम तो फिर भी इन्सान हैं, जो सीना तानकर चलते हैं!
      बिदवई जी-जैसे कायर विचारकों तथा नीति-निर्धारकों के कारण ही भारत आज दुनिया का सॉफ्टेस्ट स्टेट बना हुआ है- एक लुँज-पुँज, लिजलिजा, मरियल, पिलपिला राष्ट्र- गरीब की जोरू- कोई भी आकर कुछ भी बोल जाय, कुछ भी कर जाय!

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