स्वामी विवेकानन्द
और ऋषि अरविन्द-जैसे मनीषी जब हिन्दू धर्म की रक्षा की उद्घोषणा करते हैं, तो सारी
दुनिया उनकी बातों को दत्त-चित्त होकर, भाव-विभोर हो कर सुनती है। ऐसा इसलिए होता
है कि उनका आध्यात्मिक स्तर बहुत ही ऊँचा है; उन्होंने वैदिक साहित्य का गहन
अध्ययन-मनन-चिन्तन कर रखा है; और वे एक महान एवं विश्वव्यापी उद्देश्य की पूर्ति
के लिए हिन्दू धर्म की रक्षा की बात करते हैं। उनके विचारों को आज भी लोग पढ़ते
हैं, समझते हैं, जहाँ तक बन पड़ता है, अनुसरण करते हैं, और प्रेरणा प्राप्त करते
हैं।
इनके मुकाबले, आजकल सोशल मीडिया पर- खासकर,
फेसबुक पर- जो लोग हिन्दू धर्म की रक्षा की बातें करते हैं, उनकी बातों में सतहीपन
ही ज्यादा होता है- गम्भीरता कभी-कभार ही नजर आती है; ज्यादातर अवसरों पर उनकी
भाषा शैली आक्रामक तथा एक धर्म विशेष के प्रति घृणा पैदा करने वाली होती है; और
कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि कोई उन्मादी किस्म का व्यक्ति अनर्गल प्रलाप कर रहा हो।
अन्तर्जाल के इन हिन्दू धर्म रक्षकों ने
“आध्यात्मिक उन्नति” कर रखी हो, ऐसा मुझे- उनकी वाणी/लेखनी को देखते हुए- नहीं
लगता है।
***
जैसा कि कहा गया है, स्वामी विवेकानन्द और
ऋषि अरविन्द-जैसे मनीषियों का एक महान एवं विश्वव्यापी उद्देश्य हुआ करता था
हिन्दू धर्म की रक्षा के पीछे। एक समय ऐसा आयेगा, जब यह हिन्दू धर्म सारे विश्व के
मानव समाज को जीने की सही राह सिखायेगा- यह बात वे मनीषीगण जानते थे और इसलिए उनका
मानना था कि इस महान एवं सनातन धर्म की रक्षा होनी ही चाहिए।
इसके मुकाबले, अन्तर्जाल पर सक्रिय आज के
हिन्दू धर्म रक्षकों का उद्देश्य जो नजर आता है, वह है-
1.
पहले तो एक धर्म
विशेष के उग्रवादी स्वरुप का “भय” दिखाकर सारे हिन्दूओं को एक पाले में लाना; (यह
एक “वास्तविक” “भय” है)
2. फिर, उन्हें संगठित मतदान के लिए प्रेरित करना;
3.
और फिर, जनता का
बहुमत प्राप्त कर देश की राजसत्ता को हस्तगत करना।
(कहने की आवश्यकता नहीं कि ये हिन्दू धर्म रक्षक एक सांस्कृतिक
संस्था तथा उसकी एक राजनीतिक इकाई से गहरे जुड़े होते हैं।)
राजसत्ता पाने के बाद उस “भय” के निराकरण के लिए वे क्या करेंगे-
इसपर किसी को विचार प्रकट करते हुए मैंने अभी तक नहीं देखा है। अतः मैं ही उनके
सामने एक कपोल-कल्पित स्थिति रखता हूँ: मान लिया जाय कि 2014 के आम चुनाव में देश
के सारे हिन्दू उस धर्म विशेष के उग्रवादी स्वरुप से भयभीत होकर संगठित मतदान करते
हैं और आपलोगों को प्रचण्ड बहुमत के साथ देश की राजसत्ता सौंप देते हैं। अब आप
हिन्दूओं के उस “भय” को दूर करने के लिए-
1.
क्या उस धर्म के
सभी अनुयायियों को “देशनिकाला” दे देंगे?
2. क्या उस धर्म के सभी अनुयायियों का “जनसंहार” करेंगे?
3.
क्या एक हाथ में
बन्दूक और दूसरे में “गीता” लेकर उन्हें ‘मृत्यु या हिन्दू धर्म’- दोनों में से
एक- चुनने के लिए विवश करेंगे?
मैं समझता हूँ कि इन तीनों में से किसी भी विकल्प को अपनाने की
“घोषणा” वे हिन्दू धर्म रक्षक नहीं कर सकते हैं। न तो आधुनिक विधि-विधान के मूलभूत
सिद्धान्त उन्हें इसकी अनुमति देंगे और न ही हिन्दू धर्म के मूलभूत सिद्धान्त। ऐसे
में, स्पष्ट है कि उनको राजसत्ता सौंपने के बाद भी हमें उस धर्म विशेष के
अनुयायियों के साथ ही इस समाज में रहना होगा, जिसके उग्रवादी स्वरुप से हम भयभीत
हैं- और ऐसा वास्तव में है भी।
***
प्रसंगवश याद दिला दिया जाय कि-
1.
10वीं-11वीं सदी
में हमारे ही पूर्वज पश्चिमोत्तर सीमा पर सैन्य किलेबन्दी के प्रति लापरवाह रहे
थे, जिस कारण उस धर्म ने इस देश में प्रवेश पाया- यह एक सच्चाई है;
2. आज की तारीख में उस धर्म को जड़ सहित उखाड़कर इस देश से बाहर फेंक
देना सम्भव नहीं है- यह एक दूसरी सच्चाई है;
3.
हमारे हिन्दू धर्म
में ऐसी सड़ी-गली मान्यताओं की भरमार है, जिनके कारण प्राचीन काल से लेकर अब तक बड़ी
संख्या में लोग इस धर्म को छोड़कर जाते रहे हैं; और दुर्भाग्यवश, वैसी बहुत-सी
मान्यताओं को हम आजतक ढो रहे हैं- यह एक तीसरी सच्चाई है।
(किलेबन्दी नहीं करने के क्या-क्या कारण थे, इनपर अलग से एक लेख
लिखा जा सकता है। एक उदाहरण तिब्बत का भी दिया जा सकता है कि जैसे ही यह धर्म
काश्मीर तक फैला, तिब्बत ने भारत के साथ व्यापार को तिलांजली देते हुए अपनी सीमाओं
को भारत के लिए बन्द कर दिया था! यह बताना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि प्राण बचाने
के लिए जिन्होंने हिन्दू धर्म छोड़ा था, या जिन्हें धोखे से (रात चुपके से किसी
गाँव के कुएँ में गोमांस डाल देने पर अगले दिन सारे गाँव को धर्मनिकाला मिल जाता
था) छोड़ना पड़ा था, वे जब हिन्दू धर्म में लौटना चाहते थे, तो यहाँ के पुरोहित
उन्हें लौटने भी नहीं देते थे- यह भी एक बड़ी कुप्रथा थी इस धर्म की एक जमाने में। ऐसे
लोगों, या उनके वंशजों के मन में हिन्दू धर्म के प्रति जो स्वाभाविक आक्रोश उपजता होगा,
वह कालक्रम में उनके ‘गुणसूत्र’ में समा गया हो- तो कोई आश्चर्य नहीं!)
***
खैर, अतीत में जो हुआ, सो हुआ। अब देखा जाय कि वर्तमान
परिस्थितियों में हमें क्या करना चाहिए। मेरा आकलन कहता है-
1.
देश में रहने वाले
सभी लोगों के अन्दर, चाहे वे किसी भी धर्म के अनुयायी हों, मौजूद “भारतीयता” की
भावना को मजबूत बनाया जाना चाहिए और देश का वातावरण, देश की व्यवस्थायें ऐसी होनी
चाहिए कि इनमें से हर कोई अपने भारतीय होने पर “गर्व” कर सके;
2. कोई भी उग्रवादी धार्मिक विचारधारा हम भारतीयों की मगजधुलाई
(ब्रेनवाश) न कर सके इसके लिए बाकायदे एक व्यवस्था होनी चाहिए- जैसे कि एक खुफिया
पुलिस तंत्र; और भारत-विरोधी या भारतीयता-विरोधी विचार रखने वालों को राष्ट्रद्रोह
की सजा मिलनी चाहिए- चाहे वे किसी भी धर्म के अनुयायी हों;
3. “मानवता” (इन्सानीयत) के मूलभूत एवं सर्वभौमिक सिद्धान्तों की
बाकायदे एक “संहिता” (चार्टर) बननी चाहिए और इस देश में पलने वाले सभी धर्मों के
लिए उस संहिता का पालन अनिवार्य किया जाना चाहिए- धर्म या धार्मिक पुस्तक का
हवाला देकर किसी को भी इस देश में “अमानवीय कृत्य” करने की छूट नहीं मिलनी चाहिए,
फिर चाहे वह हिन्दू धर्म का अनुयायी हो या किसी भी और धर्म का। इस मामले में
शासन-प्रशासन का रवैया सख्त एवं भेद-भाव रहित होना चाहिए।
4.
ऐसा हो सकता है कि
‘वोट बैंक’-जैसी मजबूरियों के कारण ‘धार्मिक मामलों’ में सरकारें सख्त एवं भेद-भाव
रहित कर्रवाई न कर सकें; ऐसे में, मेरा सुझाव यह है देश में पलने वाले सभी
धर्मों, सम्प्रदायों, पन्थों, मतों के पाँच-पाँच प्रतिनिधियों को लेकर बाकायदे एक
“अखिल भारतीय धर्म संसद” का गठन किया जाना चाहिए, जो अपने अधिवेशनों में ‘सर्वधर्म
समभाव’ की नीति पर चलते हुए धार्मिक विवादों का समाधान सुझाये। बेशक, इस संसद की
प्रक्रिया लोकतांत्रिक ही होनी चाहिए।
***
***
विश्व में जो भी बड़ी घटनायें घटती हैं, उनमें किसी व्यक्ति (या कुछ
व्यक्तियों) की महत्वपूर्ण भूमिका जरुर होती है, मगर उस घटना की पटकथा “नियति”
लिखती है। वर्षों तक, दशकों तक और कभी-कभी शताब्दियों तक नियति पटकथा तैयार करती
है, तब जाकर समय आने पर किसी व्यक्ति (या समूह) के माध्यम से वह बड़ी घटना घटती है।
हमें व्यक्ति या समूह की भूमिका दीखती है, मगर अक्सर हम नियति की भूमिका को
नजरअन्दाज कर जाते हैं। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है- व्यक्ति या समूह या समाज
कुछ करे या न करे, “नियति” अपना काम करती रहती है।
अगर इस इक्कीसवीं शताब्दी में उस धर्म विशेष के “उग्रवादी स्वरुप”
का, जिसने कि आधे विश्व की नाक में दम कर रखा है, अन्त होना है, तो जान लीजिये कि
इसके लिए नियति ने पटकथा पर काम शुरु कर दिया होगा। इसी प्रकार, अगर इसी शताब्दी
में हिन्दू धर्म का “पुनर्जागरण” और भारत देश का “पुनरुत्थान” (दोनों को एक ही सिक्के के दो पहलू मैं मानता हूँ) होना है, तो इसके लिए भी नियति
ही परिस्थितियाँ तैयार कर रही होगी। ध्यान रहे, अभी इस शताब्दी का प्रायः नब्बे
प्रतिशत समय भविष्य के गर्भ में है।
व्यक्तिगत रुप से मेरा मानना है कि-
1.
इस शताब्दी में ये
दोनों बड़ी घटनायें जरुर घटेंगी;
2. हिन्दू धर्म का जो पुनर्जागरण होगा, वह इसके ज्यादा व्यापक स्वरुप
“भारतीयता” या “भारतीय संस्कृति” के रुप में होगा, न कि “हिन्दुत्व” या “हिन्दू
धर्म” के नाम से;
3.
लोग चाहे किसी भी
देश के वासी हों, किसी भी उपासना पद्धति को मानने वाले हों, “भारतीय” जीवन-शैली, यानि
“भारतीय संस्कृति”, यानि “भारतीयता” को अपनाने में गर्व का अनुभव करेंगे।
***
चूँकि उन भावी घटनाओं में किसी व्यक्ति-विशेष या एक व्यक्ति-समूह
की भी महत्वपूर्ण भूमिका होगी और स्वाभाविक रुप से, उस व्यक्ति या समूह के हाथों
में उस समय भारत की राजसत्ता होगी, अतः हम एकबार अनुमान तो लगाने की कोशिश कर ही
सकते हैं कि आखिर देश वह कौन-सा राजनीतिक समूह है, जिसके नेतृत्व में सारे विश्व से
घृणा, उन्माद एवं आतंक पर आधारित धार्मिक विचारधारा का अन्त होगा और इसके स्थान पर
प्रेम, शालीनता एवं आध्यात्म पर आधारित धार्मिक विचारधारा का सारे विश्व में
प्रसार होगा!
मेरा आकलन-
1.
वर्तमान में जिस राष्ट्रीय
राजनीतिक दल के हाथों में सत्ता है, वह स्वभाव से हिन्दू धर्म विरोधी तो है ही,
इसी के साथ भारतीयता-विरोधी भी प्रतीत होता है। इसके ज्यादातर नेताओं को आजकल नीच
से भी नीच प्रवृत्तियों में लिप्त होते हुए, नैतिक एवं चारित्रिक पतन की सारी
सीमाओं को लाँघते हुए देखा जा रहा है। किसी भी ‘आदर्शवादी’ बात का इनके यहाँ खूब
मजाक उड़ाया जाता होगा- ऐसा लगने लगा है। अतः इस दल के माध्यम से भारत के
पुनरुत्थान या भारतीयता के पुनर्जागरण की हम कल्पना नहीं कर सकते।
2. जो राष्ट्रीय राजनीतिक दल आज विपक्ष में है, इससे आशा रखी तो जा
सकती है, मगर इस आशा को निराशा में बदलते देर नहीं लगेगी। पिछली बार पाँच वर्षों
तक सत्ता में बने रहने के दौरान इस दल ने देश की जनता को एक खास किस्म की “सुखानुभूति”
(फीलगुड) की दशा में रखते हुए देश की सारी नीतियों को चुपके-से देशी-विदेशी पूँजीपतियों-उद्योगपतियों
के फायदे के लिए बना डाला था- जबकि आम भारतीयों के जीवन स्तर को शालीन एवं खुशहाल
बनाये बिना आप देश को महान नहीं बना सकते। फिलहाल ऐसा कोई लक्षण नहीं दीख रहा है
कि उनकी सोच में कोई परिवर्तन आया है- अर्थात् अगली बार भी सत्ता पाकर वे वही
करेंगे, जो उन्होंने पिछली बार किया था।
3. सत्ता पक्ष व विपक्ष वाले दलों को अकर्मण्य मानते हुए इनके विरुद्ध
जन्मे नये राजनीतिक दल से इसलिए कोई उम्मीद नहीं बँधती कि इनकी शुरुआत ही ‘नकारात्मक’
सोच के साथ हुई है। स्पष्ट कर दिया जाय- पेन्सिल का प्रयोग करते हुए अपनी लकीर को
बड़ा बनाना सकारात्मक सोच है, जबकि इरेजर का प्रयोग करते हुए दूसरों की लकीरों को
छोटा बनाना (ताकि स्वयं की लकीर बड़ी दीखे) नकारात्मक सोच है- इस दल ने अब तक तो
नकारात्मक सोच का ही परिचय दिया है। दूसरी बात, इसके नेतागण दिल्ली का मोह त्याग
कर देशाटन करते हुए अपने दल को ‘राष्ट्रीय’ स्वरुप दिलाने के मामले में गम्भीर
नहीं दीखते।
4. जहाँ तक 'विचारधारा' पर आधारित एक और प्रभावशाली
राजनीतिक दल की बात है, उनकी “भारतीयता” अक्सर सन्देह के घेरे में रही है- अपने “वाद
का विस्तार” कहकर एक पड़ोसी देश के भारत पर आक्रमण तक का वे समर्थन कर सकते हैं! बाकी जितने भी रजनीतिक दल इस देश में हैं, उनमें से किसी को इस
योग्य नहीं समझा जा रहा है कि कोई समझदार व्यक्ति उनपर अपने विचार खर्च करे!
5. चूँकि “नियति” अपना पटकथा तैयार कर रही है, अतः ऐसा लगता है कि समय
आने पर कुछ अप्रत्याशित घटेगा इस देश में, कहीं से नेतृत्व की एक नयी धारा नये
विचारों के साथ फूटकर बाहर आयेगी और जल्दी ही वह सारे देश में फैल जायेगी। "भारत का
पुनरुत्थान" और "भारतीयता का पुनर्जागरण" एक नये, यानि अबतक अपरिचित, नेतृत्व के द्वारा होगा।
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