मैंने एक थ्योरी दे रखी है
अपनी एक पोस्ट में कि 2017 तक इस देश की जनता की सारी उम्मीदें एक-एक कर चूर हो
जायेंगी, जो उन्होंने AH, SR, NM, RG, AK इत्यादि से बाँध रखी है। क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों की सोच कभी राष्ट्रीय हो ही
नहीं सकती और फिलहाल राजनीति के रंगमंच पर किसी बन्दे में इतना “मसाला” नजर नहीं आ
रहा है कि वह भारत-जैसे विशाल, महान एवं विविधता वाले देश के लिए एक “स्टेट्समैन”-
राष्ट्रनिर्माता- की भूमिका निभा सके। यह एक तरह से “राजनीतिक निर्वात्” की स्थिति
होगी और मैंने कहा है कि “निर्वात् के बाद ही आती है आँधी!” यानि तब भारत में भी
परिवर्तनों की जबर्दस्त आँधी आयेगी- एक आम आदमी भीड़ में से उठकर अचानक राष्ट्रनायक
बनेगा, जिसके नेतृत्व में यह देश एक बिलकुल नया देश बनकर उभरेगा- बनी-बनायी सारी
मान्यतायें सर के बल खड़ी नजर आयेंगी। इसे ही मैंने कुछ अन्य स्थानों पर “चमत्कार”
कहा है- अप्रत्याशित घटनाक्रम!
मैं सोचता था
कि मैं ही अकेला हूँ ऐसा सोचने वाला। मगर आज ‘प्रभात खबर’ के सम्पादकीय पृष्ठ पर
बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष गजेन्द्र प्रसाद हिमांशु जी ने जो आलेख लिखा है,
उससे पता चलता है कि मेरी “चमत्कार” वाली अवधारणा सही भी साबित हो सकती है। उनके
लेख का अन्तिम पाराग्राफ यहाँ साभार उद्धृत है-
“हालांकि लोग अकसर चर्चा करते हैं कि जब देश में
अधिकतर नेता भ्रष्ट हैं और अधिकतर पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में तब्दील हो
चुकी हैं, तो
जनता के पास विकल्प क्या होगा? विकल्पहीनता का प्रश्न भारतीय
मानस को मथता रहता है. लेकिन एक सच यह भी है कि प्रत्येक का विकल्प हमेशा ही मौजूद
रहता है, भले ही अवाम उसे पहचानने में देरी करे. कार्ल मार्क्स
ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की परिभाषा में लिखा है कि ‘आदमी
कुछ करे या नहीं करे, प्रकृति चुपचाप बैठी नहीं रहती है. वह
हमेशा घटनाओं के संघर्ष से कुछ न कुछ नया करती रहती है.’ मार्क्स
की यह परिभाषा वैसे दंभी दलों और नेताओं के लिए एक सबक है, जो
समझते हैं कि उनका कोई विकल्प नहीं है! प्रचंड वेग से बहती धारा अपना रास्ता स्वयं
खोज लेती है. इसी प्रकार भारतीय राजनीति की कोई अनजान धारा सभी दंभी विकल्पों को
ध्वस्त कर दे, तो कोई आश्चर्य नहीं. और यही एक सच्चे
लोकतंत्र की विशेषता भी है.”
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