बुधवार, 9 जनवरी 2013

पाकिस्तान: या तो एकीकरण, या फिर विखण्डन!


पाकिस्तान एक ऐसा राष्ट्र है, जो खड़ा ही “नफरत” की बुनियाद पर हुआ है। यह राष्ट्र अपनी खुशहाली, अपनी सफलता पर एक धेला भी खर्च नहीं करता- अपने सौ फीसदी संसाधन, प्रतिभा और शक्ति को यह भारत के खिलाफ खर्च करता है- भारत को बदहाल देश एवं असफल राष्ट्र बनाने के लिए। यह आतंकवाद का जन्मदाता और पालनकर्ता है- इसके द्वारा पोषित आतंकवाद ने आधी दुनिया की नाक में दम कर रखा है। इसकी सारी व्यवस्था अमेरिका और चीन की आर्थिक मदद पर टिकी है- मदद हटते ही यह राष्ट्र धराशायी हो जायेगा। यहाँ की अवाम अपनी सरकारों की भारत-विरोधी गतिविधियों, अपनी सेना की युद्धपिपासु प्रवृत्तियों, अपने कठमुल्लों के ऊल-जलूल फतवों, अपने दहशतगर्दों के बम धमाकों से त्राहिमाम कर रही है।
       ये वो बातें हैं, जिन्हें सारी दुनिया जानती है। इसके बावजूद भारत की सरकारें (शास्त्रीजी और इन्दिराजी के कार्यकाल को छोड़कर- यह और बात है कि इन दोनों नेताओं को भी “वार्ता की मेज” पर “पराजित” होना पड़ा था) पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध सुधारने, उससे वार्ता करने, उससे व्यापार करने, वहाँ तक ट्रेन/बस चलवाने, वहाँ की टीम के साथ क्रिकेट खेलने के लिए सदा लालायित रहती है। इतिहास गवाह है पाकिस्तान ने कभी अपनी ओर पहल नहीं की है।
       इतिहास में जायें, तो बुद्ध की करूणा और महावीर की दया ने इस देश की तलवारों को म्यानों में कैद करवा दिया था; फिर भी, राणा-शिवा-गोविन्द-जैसों ने तलवारों का प्रयोग जारी रखा। आधुनिक समय में, गाँधीजी की अहिंसा ने इस देश के खून को ठण्डा बना दिया; हालाँकि सुभाष-भगत-आजाद-जैसों ने खून की गर्मी बनाये रखने की कोशिश की। कुल-मिलाकर, करुणा-दया-अहिंसा का ही पलड़ा भारी रहा, और हम भारतीय आज “ठण्डे रक्त वाले और बिना रीढ़ वाले जीव” के रुप में जाने-पहचाने जाते हैं इस पृथ्वी पर!
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       कोढ़ में खाज के समान “महानता” के विषाणु हमारे नेताओं के गुणसूत्र में समा गये हैं। पाकिस्तान की बात करें, तो पाक कबाइलियों (पीछे से पाक सेना थी) के हमले के बाद नेहरूजी ने तुरन्त भारतीय फौज को रवाना नहीं होने दिया था; जब हरि सिंह नलवा ने “बिना शर्त” भारत में विलय के कागजात दिल्ली पहुँचाये, तब नेहरूजी ने अपनी तरफ से इसमें “जनमत-सर्वेक्षण” का मुद्दा जुड़वाया; जब भारतीय सेना पाक सेना को खदेड़ रही थी, तब अन्यान्य राजनेताओं के लाख विरोध के बावजूद (शायद माउण्टबेटन की सलाह पर) वे इस मसले को यू.एन.ओ. में ले गये थे। चीन की बात करें, तो रक्षा-जानकारों द्वारा बार-बार दी जा रही चेतावनियों के बावजूद नेहरूजी ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ का नारा लगाते रहे; ‘सुरक्षा परिषद’ की सदस्यता को यह कहकर उन्होंने ठुकरा दिया कि इसपर हमारे ‘बड़े भाई’ चीन का पहला हक बनता है; और जब युद्ध हुआ, तो उन्होंने अपनी सेना को कायदे से युद्ध भी नहीं करने दिया- वायुसेना को हमले की अनुमति ही नहीं दी गयी थी! फिर भी, अफसोस, कि इतनी महानता दिखाने के बावजूद उन्हें शान्ति का “नोबल” नहीं मिला!
...उल्टे, अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति में एक चुटकुला प्रचलित हो गया: प्रश्न- अगर नेहरू मिश्र के राष्ट्रपति और सादात भारत के प्रधानमंत्री होते, तो क्या होता? उत्तर- स्वेज नहर ब्रिटेन का और जम्मू-काश्मीर भारत का होता!
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वर्षों बाद “महानता” के इस कीड़े ने काटा अटलजी को। खबरें आ रही थीं कि कारगिल क्षेत्र में पाक सेना पक्के बंकरों का निर्माण कर रही है, मगर फिर भी, बस लेकर वे बाघा बॉर्डर गये थे- नवाज शरीफ से गले मिलने। छह जवानों को बुरी तरह तड़पा-तड़पा कर मारा गया और हम डरपोक एक ‘लाईन ऑव कण्ट्रोल’ नहीं लाँघ सकें.... जबकि नक्शे में उस हिस्से को अपना हिस्सा बताते हैं। शुरु में तो अग्रिम टुकड़ी के जवानों के गायब होने की खबर को एक-डेढ़ हफ्ते तक दबाकर रखा गया था, ताकि “बाघा की गलबहियाँ” की खबरों की चमक फीकी न पड़े! जब श्रीनगर रेडियो ने इस खबर को प्रसारित कर दिया, तब जाकर भारत सरकार ने स्वीकार किया कि हाँ, हमारे छह जवान लापता हैं। इसके पहले बाँग्लादेश रायफल्स ने छह भारतीय जवानों को मार डाला था और उनके शवों को बाँस पर टाँगकर- जानवरों की तरह- लाये थे बी.एस.एफ. के पास। जब लोग आक्रोशित हुए, तो अटलजी का बयान था- लोग तिल का ताड़ बना रहे हैं। अफसोस, कि देश के स्वाभिमान की कीमत पर इतनी महानता दिखाकर भी अटलजी को भी शान्ति का “नोबल” नसीब नहीं हुआ!  
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       वर्तमान सरकार की बात तो छोड़ ही दीजिये- इसमें तो इतने नीच लोग भरे हैं कि पंचायत से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक का कोई भी फैसला लेते वक्त सिर्फ और सिर्फ यह देखते हैं कि कहीं उनके “वोट बैंक” की भावनाओं को तो ठेस नहीं पहुँचेंगी- इन फैसलों से? अफजल तो जिन्दा है ही, कसाब भी जिन्दा रहता, अगर उसे “डेंगू के मच्छर” ने नहीं काटा होता! यह मत समझिये कि इन मामलों एं भाजपा इनसे उन्नीस हैं। वे भी दुर्दान्त आतंकवादियों को जेल से निकालकर कान्धार ले गये थे। जब समझौता ही करना था उनसे, तो चण्डीगढ़ हवाई अड्डे पर उन्हें ईंधन देने से पहले क्यों नहीं समझौता किया? यहीं छुड़ा लेते बन्धकों को और छोड़ देते हाफिज सईदों को। बाद में भले उड़ते जहाज पर मिसाइल दाग देते! पहले तो उन्हें ईंधन देकर कान्धार भेजा और हाफिजों को लेकर खुद वहाँ पहुँच गये। ले ही गये तो ले जाते वक्त उन आतंकवादियों की शरीर के अन्दर विस्फोटक भरकर ले जाते! किसका डर था? इधर अपना जहाज छुड़वाते, उधर रिमोट का बटन दबा देते!
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       मेरे अपने विचार पाकिस्तान के मामले में एकदम स्पष्ट हैं- या तो दोस्ती, या फिर दुश्मनी! या तो जाली नोट, मादक द्रव्य और आतंकवादियों को भेजना बन्द करो; अन्यथा सारे सम्बन्ध समाप्त! सीमायें सील! दस हजार मिसाइलें सदा तैयार- एक-एक ठिकाने के लिए दस-दस मिसाइलें!
       ज्यों ही पानी नाक तक पहुँचे, इस नापाक राष्ट्र को मिटा दिया जाय! जैसे “पूर्वी पाकिस्तान” नाम का कोई राष्ट्र दुनिया के नक्शे पर नहीं रहा, वैसे ही “पाकिस्तान” नाम का भी कोई राष्ट्र नहीं रह जायेगा। इसके स्थान पर जन्म होगा चार नये राष्ट्रों का- “पख्तूनिस्तान”, “बलूचिस्तान”, “पंजाब” और “सिन्ध”! हाँ, ऐसी कार्रवाई से पहले दुनिया में भारत का एक “मित्र” होना जरूरी है और मैं समझता हूँ कि दुनिया में सिर्फ एक रूस ही है, जिससे भारत दोस्ती कर सकता है।
       यह मेरी “विखण्डन” थ्योरी है।
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हालाँकि मैं एकदम से गर्म दिमाग का भी आदमी नहीं हूँ। मेरे पास बाकायदे एक “एकीकरण” थ्योरी भी है-
14-15 अगस्त 2017 को भारत-पाक-बाँग्ला में जनमत सर्वेक्षण करवाया जाय कि यहाँ के नागरिक तीनों देशों का “एकीकरण”; या कम-से-कम, एक “महासंघ” का गठन चाहते हैं या नहीं। 2027 और 2037 में फिर यह सर्वेक्षण करवाया जाय। अगर तीनों सर्वेक्षणों में 50 प्रतिशत से ज्यादा नागरिक सहमति दें, तो 14-15 अगस्त 2047 की रात तीनों राष्ट्रों का “एकीकरण” हो जाना चाहिए या फिर, तीनों राष्ट्रों को मिलाकर एक “महासंघ” का गठन होना चाहिए, जहाँ सीमाओं पर सेना न हो, करेन्सी एक हो, किसी विदेशी ताकत को कोई पैर टिकाने न दे, इत्यादि-इत्यादि।
अब आप ही बताईये कि आपको क्या अच्छा लगा- “विखण्डन” थ्योरी या “एकीकरण”? 

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