रविवार, 30 दिसंबर 2012

औपनिवेशिक भारत बनाम आज का भारत: संक्षिप्त तुलना



(कुछ दिनों पहले फेसबुक पर यह सवाल उठाया गया था कि जब यहाँ वर्तमान सरकार के खिलाफ इतना गुस्सा है, तो इस पार्टी को, इसके नेताओं को चुनाव में जिताकर सरकार बनाने का मौका भला कौन देता है? उस सवाल को मैंने याद रखा था। आज सोचा और लिखा इसपर।)  
औपनिवेशिक भारत में जनसंख्या का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा ऐसा रहा होगा, जो परम्परागत सिद्धान्त “कोउ नृप भये हमे का हानि” (कोई भी राजा हो, हमें क्या फर्क पड़ता है?) के सिद्धान्त पर चलते हुए शासन-प्रशासन के मामले में निस्पृह, तटस्थ रहता होगा। लगभग 35 प्रतिशत जागरुक भारतीयों का वर्ग ब्रिटिश राज का समर्थक रहा होगा- इसमें से 20 प्रतिशत तो ऐसे रहे होंगे, जो नौकरी, जमीन्दारी इत्यादि के कारण समर्थक रहे होंगे, बाकी 15 प्रतिशत खालिस चापलूस रहे होंगे, जिन्हें अगर अनुमति मिल जाती, तो वे सही में किसी अँग्रेज के पैरों से जूते-मोजे उतारकर उनके तलवों को चाटने लगते!
      इनके मुकाबले 5 प्रतिशत (40 करोड़ का 5 प्रतिशत 2 करोड़ बैठता है) भारतीय ही ऐसे रहे होंगे, जिन्हें लगता होगा कि इस साम्राज्य का एक दिन पतन होगा और भारत आजाद होगा। इनमें भी सिर्फ 1 प्रतिशत ही ऐसे रहे होंगे, जो आजादी के लिए “सरफरोशी” की तमन्ना अपने दिलों में रखते होंगे।
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      आज के भारत में भी वही स्थिति है- बस सन्दर्भ बदल गये हैं। लगभग 70 आबादी तटस्थ रहती है- इसमें से आधे तो मतदान में भाग लेते ही नहीं, बाकी आधे ‘लहरों पर सवार होकर’ मतदान करते हैं। जब लहर न हो, तो उम्मीदवार की जाति या धर्म देखकर, या फिर, ‘पार्टी लाईन’ के तहत मतदान करते हैं- बिना यह देखे कि उम्मीदवार पर चोरी-डकैती-हत्या-बलात्कार-भ्रष्टाचार के कितने आरोप लगे हैं!
      35 प्रतिशत लोग जागरुक जरुर हैं, मगर उनकी जागरुकता देश के किसी काम की नहीं, क्योंकि वे किसी पार्टी, किसी नेता, या किसी नेती के अन्ध समर्थक होते हैं। उनकी पार्टी जो भी नीति अपनायेगी, उसे वे येन-केन-प्रकारेण सही साबित करेंगे। इन्हीं में से 15 प्रतिशत चापलूस होते हैं, जो अनुमति मिलने पर खुले-आम अपने नेता या नेती के तलवे चाटने लगेंगे!
      इनके मुकाबले 5 प्रतिशत भारतीय ही ऐसे होंगे, जो देश की बदहाली से दुःखी हैं, जो यह मानते हैं कि सभी राजनेता आपस में मौसेरे भाई हैं और सत्ता मिलने पर सभी एक जैसे हो जाते हैं।
      इनमें भी सिर्फ 1 प्रतिशत ही ऐसे हैं, जो यह मानते हैं कि 15 अगस्त 1947 को जो सत्ता-हस्तांतरण हुआ था, उसकी शर्तों के तहत उसी व्यवस्था को इस देश में लागू रखा गया, जिसे अँग्रेजों ने एक “उपनिवेश” पर “राज” करने के लिए बनाया था। ये 1 प्रतिशत लोग ही “लीक से हटकर” सोचने की हिम्मत रखते हैं, सड़ी-गली व्यवस्था को दफनाकर नयी व्यवस्था कायम करना चाहते हैं।
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      औपनिवेशिक काल में लगभग 95 प्रतिशत भारतीय यह मानकर चल रहे थे कि ब्रिटिश साम्राज्य एक महान एवं शक्तिशाली साम्राज्य है, इसे पराजित करना असम्भव है और यह भारत में अभी सैकड़ों-हजारों वर्षों तक कायम रहेगा। मगर परिस्थितियाँ बदलीं और आधी दुनिया पर राज करने वाले ब्रिटेन की हैसियत आज अमेरिका के पालतू कुत्ते से ज्यादा कुछ नहीं है। अमेरिका जिसकी तरफ उँगली उठाता है, ब्रिटेन उसपर भौंकने लगता है। आज खुद ब्रिटिश अपने साम्राज्यवादी अतीत पर शर्मिन्दा हैं! तभी तो चार-छह महीने पहले लन्दन के उस संग्रहालय को बन्द कर दिया गया, जिसे नयी पीढ़ी को साम्राज्यवादी गौरव से परिचित कराने के उद्देश्य से बनाया गया था।
      ठीक इसी प्रकार, आज 95 भारतीयों को लगता है कि कुछ नहीं बदलने वाला है, साँप और नाग बारी-बारी से (बेशक, अन्यान्य छोटे साँपों की मदद से) देश पर शासन करते रहेंगे, और सब कुछ यूँ ही चलते रहेगा। मगर मैं देख सकता हूँ कि वह दिन दूर नहीं है, जब सारे-के-सारे बड़े भ्रष्टाचारी- चाहे वे राजनेता हों या उच्चाधिकारी, पूँजीपति हों या माफिया- निकोबार के किसी निर्जन टापू पर निर्वासित जीवन बिता रहे हैं... और देश खुशहाली के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है (ध्यान रहे- ‘खुशहाली’, ‘विकास’ नहीं!)
      साल 2012 ने जाते-जाते इस संक्रमण की शुरुआत कर दी है... बेशक, “दामिनी” के बलिदान को इस बदलाव के “तात्कालिक कारण” के रुप में इतिहास में सदा के लिए दर्ज किया जायेगा।
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      हाँ, मैं तो “1 प्रतिशत” वाली श्रेणी में खुद को रखता हूँ... आप अपना स्थान देख लें...   

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