रविवार, 30 दिसंबर 2012

बदलाव “ऊपर से” आयेगा, न कि “नीचे से”



      बहुत-से विचारक मान रहे हैं कि “समाज” में बदलाव पहले आयेगा, तब “ऊपर” व्यवस्था बदलेगी। मैं इससे सहमत नहीं हूँ। मेरा मानना है कि नीचे से आप बहुत छोटा-सा तथा बहुत छोटे-से क्षेत्र में बदलाव ला सकते हैं (जैसे कि अन्ना हजारे ने रालेगण सिद्धि तथा आसपास के गाँवों में बदलाव लाया है); देश भर में बड़े बदलाव लाने के लिए एक “देशभक्त, ईमानदार तथा साहसी” नायक के हाथ में सत्ता होना अनिवार्य है। (ध्यान रहे, उसे समय पर “कठोर” भी होना पड़ेगा- सिर्फ “विनम्रता” से बात बिगड़ जायेगी, जैसा कि लालबहादूर शास्त्रीजी के साथ हुआ था।)
      दो उदाहरणों से मेरी बात स्पष्ट हो सकती है-
1.  सिंगापुर- जहाँ का प्रशासन, जहाँ की न्यायिक व्यवस्था चुस्त है- में जाकर भारतीय भी अनुशासित हो जाते हैं- ऐसा क्यों? वही भारतीय स्वदेश लौटने पर कानून-व्यवस्था को फिर ठेंगा दिखाने लगते हैं। जाहिर है, यहाँ व्यवस्था न केवल लचर है, बल्कि भ्रष्ट भी है। प्रसंगवश, सिंगापुर में जब एक अमेरीकी किशोर को ‘बेंत से पिटाई’ (कैनिंग) की सजा मिली थी, तब अमेरीकी राष्ट्रपति ने भी माफी की गुहार लगायी थी, मगर वहाँ की न्यायपालिका नहीं झुकी और सजा का पालन हुआ। (पिछले हफ्ते ‘प्रभात खबर’ के सम्पादक हरिवंश जी ने इसकी विस्तृत व्याख्या की थी।) 
2.  बचपन से हम सुनते आये हैं कि फलां एस.पी. या फलां थानेदार जब यहाँ था, तो यहाँ अपराध बन्द हो गये थे। यही बात टीवी पर एक विचारक भी पिछले दिनों कह रहे थे। ऐसे किस्से आजतक प्रचलित हैं। ताजा उदाहरण हैं बिहार के अररिया जिले के एस.पी. शिवदीप लाण्डे। उनके नाम से अपराधी थर्राते हैं। इतिहास से भी उदाहरण लिया जा सकता है- कहते हैं कि शेरशाह सूरी के जमाने में अपराध नहीं होते थे। क्या पहले “जनता” बदली थी तब “शेरशाह” आया था? नहीं, पहले शेरशाह शासक बना और तब जनता- मतलब अपराधी- सुधर गये थे।
कहने का तात्पर्य, हमें पहले “शासन प्रणाली” को बदलना होगा- बाकी प्रणालियाँ इसी के साथ सुधरने लगेंगी। दुर्भाग्य से, आज शासन प्रणाली बदलने की बात वही सोच सकते हैं, जो इस देश को “महान लोकतंत्र” नहीं मानते, जो संविधान को “पत्थर की लकीर” या “ब्रह्म वाक्य” नहीं मानते... और ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है!  

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