गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

मालदीव से ‘जी.एम.आर.’ का निष्कासन: भारत की “विदेश नीति” की विफलता




      ज्यादातर भारतीय मालदीव के इस फैसले को गलत ठहरायेंगे; मगर मैं नहीं, क्योंकि मैं खुद इस अवधारणा का कट्टर समर्थक हूँ कि भारत में स्वतंत्र रुप से जड़ें जमा चुकी सभी विदेशी/बहुराष्ट्रीय निगमों को निकाल बाहर किया जाय- बिना अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों की परवाह किये। मेरा व्यक्तिगत विचार कहता है कि भारत को सिर्फ और सिर्फ संयुक्त राष्ट्र संघ के कानूनों/प्रावधानों/नीतियों/सन्धियों का सम्मान करना चाहिए, बाकियों के पालन के लिए भारत को कोई भी शक्ति बाध्य नहीं कर सकती!
      चूँकि जी.एम.आर. एक भारतीय कम्पनी है- इसलिए सिर्फ इसी आधार पर मैं मालदीव के फैसले को गलत नहीं ठहरा सकता।
हाँ, भारत की विदेश नीति की विफलता एकबार फिर जगजाहिर हो गयी। हो सकता है, बहुत-से साथी मालदीव की राजनीति तथा मालदीव के साथ भारत की विदेश नीति की जानकारी न रखते हों, वे मोटे तौर पर सिर्फ तीन बातें ध्यान में रख सकते हैं-
1.      1988 में मालदीव में राष्ट्रपति गयूम के खिलाफ बाकायदे सैन्य बगावत हुई थी, तब भारत ने बाकायदे अपनी सैन्य टुकड़ी को भेजकर बगावत को दबाया था और गयूम की सत्ता को बचाया था। आप सोचेंगे- गयूम बड़े अच्छे शासक रहे होंगे। जी नहीं, वे एक कट्टरपन्थी किस्म के शासक थे।
2.      2008 के आम चुनाव में मालदीव की जनता ने बाकायदे आम चुनाव में मतदान करके गयूम को सत्ता से बेदखल किया और नशीद के हाथों में सत्ता सौंपी। नशीद को पिछले डेढ़ वर्षों से काल-कोठरी में कैद करके रखा था- गयूम ने! जाहिर है- नशीद की विचारधारा उदारपन्थी है और व्यक्तिगत जीवन में भी वे जेण्टलमैन हैं- क्योंकि राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने उन जेलरों को माफ कर दिया, जिन्होंने उन्हें (नशीद को) प्रताड़ित किया था।
3.      गयूम अपनी हार को पचा नहीं पाये और उनके इशारे पर फरवरी 2012 में पुलिस की कुछ टुकड़ियों ने बगावत की। ध्यान रहे, यह सैन्य बगावत नहीं थी। मगर भारत ने नशीद की मदद नहीं की क्योंकि- 1. नशीद उदारपन्थी (तथा बेशक, भारत से मित्रता के समर्थक) थे और 2. भारत सरकार उत्तर प्रदेश के विधान चुनाव से ऐन पहले एक उदारपन्थी मुस्लिम शासक की सत्ता बचाकर देश के कट्टरपन्थी मुसलमानों के वोट का नुकसान नहीं उठाना चाहती थी! नशीद ने इस्तीफा दे दिया और गयूम के समर्थक वाहिद राष्ट्रपति बने, जो न केवल कट्टरपन्थी हैं, बल्कि भारत के स्थान पर चीन से मित्रता के समर्थक हैं। आप क्या सोचते हैं- बिना भारत सरकार की सहमति से वाहिद राष्ट्रपति बन गये होंगे? जी नहीं, पर्दे के पीछे से भारत सरकार ने वाहिद को बाकायदे अभयदान दिया था।
वही वाहिद अभी नशीद के समय (जून 2010 में) भारतीय इन्फ्रास्ट्रक्चर कम्पनी जी.एम.आर. के साथ हुए समझौते को रद्द कर रहे हैं। यह समझौता मालदीव के ‘इब्राहिम नासिर इण्टरनेशनल एयरपोर्ट’ के रख-रखाव के लिए प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप मॉडल के तहत हुआ था।
           यह भारत की विदेश-नीति की विफलता नहीं, तो और क्या है? 

     पुनश्च: 
     भारत का समर्थन न मिलने के बावजूद नशीद भारत के मित्र बने हुए हैं अप्रैल 2012 में दिल्ली आकर उन्होंने साउथ ब्लॉक को आगाह कर दिया था कि जी.एम.आर. को बाहर किया जा सकता है- मगर जाहिर है, साउथ ब्लॉक वाले कान में तेल डाले सोते रहे! 

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