सोमवार, 24 दिसंबर 2012

मैं तो "चमत्कार" की आशा रखने लगा हूँ, और आप?


5 जुलाई, 1943 को आजाद हिन्द फौज की सलामी लेने के बाद नेताजी ने जो भाषण दिया था, उसका छोटा-स अंश-
“...अपने सम्पूर्ण सामाजिक जीवन में मैंने यही अनुभव किया है कि यूँ तो भारत आज़ादी पाने के लिए हर प्रकार से हकदार है, मगर एक चीज की कमी रह जाती है, और वह है- अपनी एक आज़ादी की सेना। अमेरिका के जॉर्ज वाशिंगटन इसलिए संघर्ष कर सके और आज़ादी पा सके, क्योंकि उनके पास एक सेना थी। गैरीबाल्डी इटली को आज़ाद करा सके, क्योंकि उनके पीछे हथियारबन्द स्वयंसेवक थे। यह आपके लिए अवसर और सम्मान की बात है कि आपलोगों ने सबसे पहले आगे बढ़कर भारत की राष्ट्रीय सेना का गठन किया। ऐसा करके आपलोगों ने आज़ादी के रास्ते की आखिरी बाधा को दूर कर दिया है। आपको प्रसन्न और गर्वित होना चाहिए कि आप ऐसे महान कार्य में अग्रणी, हरावल बने हैं।..."
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नेताजी न केवल प्रखर देशभक्त थे, बल्कि प्रबुद्ध राजनीतिज्ञ भी थे। हालाँकि परिस्थितियों ने कभी उनका साथ नहीं दिया। पहले गाँधीजी ने (नेहरूजी को स्थापित करने के लिए) नेताजी को काँग्रेस छोड़ने पर विवश किया; फिर स्तालिन ने उन्हें सैन्य सहयोग नहीं दिया (स्तालिन नाज़ी आक्रमण का अनुमान लगा चुके थे शायद- हिटलर से सन्धि होने के बावजूद); हिटलर भी नेताजी के इण्डियन लीज़न के साथ जर्मन सेना की टुकड़ियों को रवाना करने से कतराते रहे; जापान ने नेताजी को बुलाने में अनावश्यक रुप से देर की; जब अँग्रेजों पर आक्रमण किया भी, तो इम्फाल के रास्ते- ताकि जापानी सेना अमेरीका द्वारा बनवायी जा रही "लीडो" सड़क को नष्ट कर सके; जबकि भारत की आजादी के लिए जापानी सेना को चटगाँव के रास्ते भारत में प्रवेश करना था (मेरा यह अनुमान गलत भी हो सकता है- हो सकता है, नेताजी ने भी इम्फाल वाले कठिन रास्ते को ही सही माना हो); ...और अन्त में फिर स्तालिन ने नेताजी को सैन्य मदद नहीं दी।
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खैर, मगर नेताजी का अनुमान सही साबित हुआ। उनकी योजना थी- जैसे ही आजाद हिन्द फौज और जापानी सेना भारत पर चढ़ाई करे, ब्रिटिश सेना के भारतीय जवान तथा नागरिक एक साथ बगावत कर दें। बगावत हुई भी- मगर बाद में- जब आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों का कोर्ट मार्शल चल रहा था- लाल किले में। भारतीय सेना के बागी होने के बाद जाकर अँग्रेजों ने भारत छोड़ने का निर्णय लिया- वर्ना सविनय अवज्ञा से लेकर भारत छोड़ो तक किसी भी नागरिक आन्दोलन के दौरान उन्होंने भारत छोड़ने पर विचार नहीं किया था।
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खैर, आज भी हम गुलामी के दौर से गुजर रहे हैं- भ्रष्टाचारी, बे-ईमान लोग हम पर शासन कर रहे हैं, और हम इनसे आजादी पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह संघर्ष तभी सफल होगा, जब इसे पीछे-से एक शक्तिशाली सेना की मदद मिले, वर्ना ये बिना दिल, बिना दिमाग वाले पुलिस एवं अर्द्धसैन्य बल वाले किसी भी जनान्दोलन को कुचल देंगे।
यह आलेख मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि मैं सफाई दे सकूँ कि मैं बार-बार “जनान्दोलन को भारतीय थलसेना का नैतिक समर्थन हासिल रहना चाहिए”- ऐसा क्यों कहता हूँ; मैं क्यों कहता हूँ कि जेनरल वी.के. सिंह को भारत सरकार तथा भारत की न्यायपालिका के खिलाफ जाते हुए पद छोड़ने से इन्कार करना चाहिए था। यह “संक्रमण” का दौर है, भारत बदहाली से निकल कर खुशहाली की ओर कदम बढ़ाने ही वाला है। बेशक, आन्दोलन नागरिक ही करेंगे, मगर उन्हें एक शक्तिशाली संस्था का नैतिक समर्थन जरुर चाहिए।
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आज मुझे नहीं पता, क्या होने वाला है। क्या दो-एक साल में देश की व्यवस्था बदलेगी? क्या यह आन्दोलन एक देशव्यापी जनान्दोलन का रुप लेगा? क्या सत्ताधारी और सभी राजनेता इसके सामने घुटने टेकेंगे? या फिर, फिर वही ढाक के तीन पात हो जायेंगे... ?
31 मई, 2012 को जिस दिन जेनरल वी.के. सिंह ने इस्तीफा दिया, मैं उसी दिन से किसी “चमत्कार” (अप्रत्याशित घटनाक्रम) की आशा रखने लगा हूँ। पता नहीं, आप में से कितने मेरी भावनाओं से सहमत होंगे।
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