बहुत पहले
कहीं पढ़ा था कि एक पश्चिमी राजनीतिक विश्लेषक ने ‘आयोगों” की तुलना ‘धड़ाका करने’-
देशी भाषा में कहें, तो पखाना करने- से की थी। पहले दवाब बनता है, फिर आवाज होती
है, फिर एक ‘धड़ाक्’, और फिर... अगले दिन प्रेशर बनने तक तसल्ली!
आयोगों के
मामले में भी वही होता है- पहले जनता का आक्रोश और दवाब, फिर नारेबाजी और
लाठीचार्ज-गोलीबारी, फिर आयोग का गठन, और फिर... अगला आक्रोश पैदा होने तक राहत!
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इस बार
मामला संगीन है, इसलिए हो सकता है कि कुछ गम्भीर परिणाम सामने आ जायें, मगर 1947
के बाद से आयोगों तथा उनकी रपटों का जो हश्र हुआ है, उसे देखते हुए भरोसा नहीं हो
रहा है।
हो सकता है
कि वर्तमान दोनों आयोगों के कार्यकाल दो-तीन बार बढ़ाना पड़े। जब सरकार को इसकी रपट
मिल जाय, तो सरकार इस पर कुण्डली मारकर बैठ जाये! जनता का दवाब पड़ने पर इसे संसद
की पटल पर रखा जाय और अपनी आदतों को मुताबिक संसद को मछली बाजार बनाते हुए सांसद
इस पर चर्चा करें, जिससे कोई निष्कर्ष न निकले। अन्त में, इसके विधिवत् अध्ययन के
लिए एक ‘संसदीय समिति’ बना दी जाय, जो अध्ययन करते-करते सो जाये। जनता का दवाब
पड़ने पर वह सरकार को रिपोर्ट दे और सरकार उसपर कार्रवाई के लिए ‘उच्च अधिकार
प्राप्त मंत्री समूह’ बना दे। मंत्री समूह एक पंक्ति में निम्न ‘गोपनीय’ रिपोर्ट
सरकार को दे- “बलात्कार तथा यौन-अपराधों से जुड़े मामलों की ‘त्वरित’ सुनवाई तथा
इनके लिए ‘कठोर’ सजा हम राजनेताओं की सेहत के लिए हानिकारक होगा।” ...और फिर सरकार
आयोगों की रपटों को खारिज कर दे, या इन्हें ठण्डे बस्ते में डाल दे!
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तब तक
चुनाव आ जायेंगे और हो सकता है कि जो भारतीय इस जघन्य घटना पर आज आक्रोशित हो रहे
हैं, वे ही राजनेताओं की रैलियों में उमड़ने लगें; राजनेताओं या उनकी औलादों के
चेहरे देखकर अपना ‘गधा-जनम’ छुड़ाने लगें; अपनी पार्टी को देखकर या जाति, उपजाति,
धर्म के आधार पर उम्मीदवारों को वोट देने के लिए लाईन में लग जायें- बिना यह देखे
कि पिछले पाँच वर्षों से यह कहाँ था, इसके ऊपर बलात्कार के दर्जनों आरोप क्यों लगे
हैं, इसकी सम्पत्ति पिछले दिनों सौ-दो सौ गुना कैसे बढ़ गयी!
फिर
सांसदों की मण्डी सजेगी; जोड़-तोड़ से सरकार बनेगी; सभी अपराधी-माफिया, सभी
उद्योगपति-पूँजीपति, सभी बे-ईमान-भ्रष्ट अफसर, सभी देशी-विदेशी दलाल इस नयी सरकार
को अपने अनुसार ढाल लेंगे... और पुराना ढर्रा फिर चल पड़ेगा!
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अब चाहें
महात्मा कबीर आ जायें अपनी वाणी लेकर या स्वामी विवेकानन्द आ जायें अपना
वेदान्त-उद्घोष लेकर; चाहे भगत सिंह आ जायें अपना बम लेकर या नेताजी सुभाष आ जायें
अपनी आज़ाद हिन्द फौज़ लेकर- इस देश के लोगों की “भारतीयता” को वे नहीं जगा पायेंगे,
जो समुद्रगुप्त के जमाने में, चन्द्रगुप्त-अशोक के जमाने में,
विक्रमादित्य-हर्षवर्द्धन के जमाने में पायी जाती थी... जब ज्ञान और आध्यात्म के
क्षेत्र में, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में, उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में,
कला और संगीत के क्षेत्र में, सुख और समृद्धि के क्षेत्र में, शासन और प्रशासन के
क्षेत्र में, शौर्य और वीरता के क्षेत्र में भारत का डंका दुनियाभर में बजा करता
था!
पहले तो ‘बौद्ध-जैन
धर्मों की करूणा और दया’ ने, फिर (इन्हीं के फलस्वरुप) ‘हजार वर्षों की गुलामी’
ने, और फिर अन्त में, (ताबूत की आखिरी कील के समान) ‘गाँधीजी की अहिंसा’ ने इस कौम
को गहरी नीन्द में सुला दिया है! अब कोई देश यहाँ परमाणु बम भी फेंक दे, तो इस कौम
की तन्द्रा शायद न टूटे- हमारी-आपकी लेखनी की बिसात ही क्या है!
...तो यही इस
देश की नियति है।
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