आम तौर पर माना जाता है कि
यूरोपीय देश धर्मनिरपेक्ष होते हैं, वहाँ के कानून मानवाधिकारों की रक्षा करने
वाले होते हैं और वहाँ के नागरिक समझदार एवं व्यवहारिक होते हैं; मगर हाल के दिनों
में घटी तीन घटनाओं ने मुझे इन धारणाओं के बारे में पुनर्विचार करने को बाध्य कर
दिया है।
पहली घटना अप्रैल में घटी थी- नॉर्वे में। तीनवर्षीय अभिज्ञान और
एकवर्षीय ऐश्वर्या को उनके माता-पिता सागरिका-अनुरुप से अलग कर दिया गया था- इस
आरोप में वे बच्चों की ठीक से देखभाल नहीं कर रहे हैं। शायद ही कोई भारतीय
माता-पिता हों, जो बच्चों के प्रति लापरवाही का भाव रखते हों। मेरी समझ से, चूँकि
वे अपने बच्चों को अपने साथ सुलाते थे, इसलिए किसी पड़ोसी ने यह जानकर शिकायत दर्ज
करा दी होगी। भारत में छोटे बच्चों को माता-पिता, खासकर माँ, अपने पास ही सुलाती
है- यह एकप्रकार से यहाँ की प्रथा है। मगर पश्चिमी देशों में छोटे बच्चों को भी
अलग सुलाने रिवाज है। जहाँ तक मैं समझता हूँ, यह प्रथा या रिवाज का मामला है, न कि
कानून का, मगर वहाँ की सरकार, वहाँ के कानून ने बच्चों को उनके माता-पिता से अलग
कर दिया। आपको क्या लगता है, अपने माँ-बाप से अलग, किसी दूसरे दम्पत्ति के पास
भारतीय बच्चे कभी खुश रह सकते हैं?
दूसरी घटना आयरलैण्ड में घटी- पिछले महीने। तीन दिनों तक डॉ.
सविता तड़पती रहीं, उनकी जान बचाने का एक
ही रास्ता था- गर्भपात, मगर ऐसा नहीं किया गया; क्योंकि “कैथोलिक” धर्म इसकी अनुमति नहीं देता और आयरलैण्ड एक “कैथोलिक” देश है। दूसरे शब्दों में- कैथोलिक धर्म मानवता से ऊपर है और
आयरलैण्ड एक कट्टर धार्मिक देश है।
तीसरी घटना अभी-अभी की है- नॉर्वे की ही। सातवर्षीय बच्चे ने शायद
स्कूल बस में पैण्ट गीली कर दी थी। इसपर उसके माता-पिता अनुपमा-चन्द्रशेखर ने
बच्चे को डराया-धमकाया था कि अगर उसने फिर ऐसा किया, तो उसे भारत वापस भेज दिया
जायेगा। बच्चे ने यह बात स्कूल में शिक्षिका को बतायी और शिक्षिका ने पुलिस में
रिपोर्ट लिखा दी- कि माँ-बाप अपने बच्चे को डरा-धमका रहे हैं। इस आरोप में
माँ-पिता को डेढ़ साल की जेल की सजा की माँग अभियोजन पक्ष से की गयी है- कल, 3
दिसम्बर को- सुनवाई है। जहाँ तक मैं समझता हूँ, यहाँ “जेल” की सजा से कोई हल नहीं है। माता-पिता को समझाया जाना चाहिए था। और
अगर बच्चा अक्सर पैण्ट गीली करता है, तो माता-पिता को मनोचिकित्सक के भेजना चाहिए
था, ताकि मनोचिकित्सक उन्हें समझा सकें कि कैसे धीरे-धीरे का बच्चे का विश्वास
जीतना चाहिए, कैसे उसका दोस्त बनना चाहिए। एकबार बच्चा अपने माता-पिता को अपना
‘दोस्त’ समझने लगे, तो उसकी पैण्ट गीली करने की समस्या अपने-आप समाप्त हो जायेगी।
मगर ऐसा न करके माता-पिता पर “धमकाने के अपराध” में मुकदमा चल रहा है।
मैं सोचने को मजबूर हूँ कि क्या यूरोपीय लोग “शिक्षित जाहिल” हैं? “कट्टर धार्मिक” हैं, जो अपने धर्म को “इन्सानीयत-
मानवता” से भी ऊपर मानते हैं? और क्या वे “एक नम्बर के खड़ूस” हैं, जो सिर्फ कानून में लिखे “अक्षरों” के हिसाब से चलते हैं- न दिमाग का इस्तेमाल करते हैं, न दिल का और
इतना भी नहीं सोचते कि इन कानूनों को मनुष्यों ने ही बनाया है- मनुष्यों के ही
सुभीते के लिए?
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