रविवार, 30 दिसंबर 2012

खाकी तथा खादी के बीच गठजोड़: माजरा क्या है?


  
      पिछले दो दिनों से मेरे दिमाग में यह सवाल उमड़-घुमड़ रहा था कि पुलिसवाले इन खादीधारियों (हालाँकि अब खादी पहनने का चलन नहीं है- इसे मुहावरे के रुप में लिया जाय) को बचाने के लिए अपनी जान की बाजी भला क्यों लगा देते हैं?
      इस प्रश्न का उत्तर ‘फेसबुक’ पर मिला। एम.एस. राणा बताते हैं कि मणिपुर की मनोरमा के गुनहगारों को बचाने के लिए भारत सरकार मुकदमा लड़ रही है- बारह साल बीत गये- न्याय के लिए अनशन पर बैठी इरोम शर्मिला की हड्डियाँ गलने लगी हैं इन बारह वर्षों में, मगर सरकारों का मन नहीं गला! उड़ीसा की आरती मांझी के गुनहगारों को बचाने के लिए सरकार मुकदमा लड़ रही है- और आरती जेल में है! छत्तीसगढ़ की सोनी सोरी के गुनहगारों को बचाने के लिए भी सरकार मुकदमा लड़ रही है- सोनी खुद जेल में है! प्रशान्त भट्ट जानकारी देते हैं कि सोनी ने जिस पुलिसवाले के खिलाफ आरोप लगाया था, उसे राष्ट्रपति ने पुलिस मेडल से सम्मानित किया है।  
ये बहुचर्चित काण्ड हैं। इनके अलावे हजारों ऐसे मामले हैं, जहाँ पुलिसवालों द्वारा जघन्य से भी जघन्य अपराध किये जाते हैं (बहुत पहले कहीं पढ़ा था- एक थाने में माँ-बेटे को नंगा करके बेटे को माँ के ऊपर लेटने को विवश कर दिया गया था!) और हर मामले में सरकार पुलिसवालों को बचाने के लिए जमीन-असमान एक कर देती है।
नेताओं की, सरकार की, व्यवस्था की इस प्रवृत्ति के बदले में ही शायद ये पुलिसवाले इनकी रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगाते हैं। सोचिये, कि देश की जनता का हर हिस्सा, सरकार का प्रायः हर विभाग कभी-न-कभी सरकार की किसी-न-किसी नीति के खिलाफ अपना विरोध जता चुका है- यहाँ तक कि सेनाध्यक्ष को इस साल अदालत में जाना पड़ा, मगर पुलिसवालों ने कभी सरकारों की किसी नीति का कभी विरोध नहीं किया- जबकि पुलिसवालों की ‘यूनियन’ भी है!
शायद बहुतों को बुरा लगे, मगर यह एक कड़वी सच्चाई है कि गृहमंत्री रहते हुए सरदार बल्लभ भाई पटेल ने भी पुलिस की “मानसिकता” को बदलने की कोशिश नहीं की थी। पुलिसवालों के लिए आज भी देश उपनिवेश है, नेता ‘शासक’ हैं, जनता ‘शासित’ और शासितों पर डण्डे के जोर पर हुकुम चलाना उनका ‘कर्तव्य’ है।
आज देशभक्त और ईमानदार पुलिसवालों को या तो आत्महत्या करनी पड़ती है, या फिर, वे बिना महत्व वाले पदों पर अपनी पोस्टिंग करा लेते हैं। साहसी पुलिसवाले बहुत कम रह गये हैं, जो खादीधारियों की परवाह नहीं करते हैं।  

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