पुरानी घटना है- लगभग 25-30 साल पुरानी। बलात्कार के एक आरोपित को बाइज्जत बरी करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश महोदय कुछ इन शब्दों में फैसला सुनाते हैं-
“यह अदालत जान रही है कि आरोपित ने अपराध किया है; मगर चूँकि पुलिस ने कमजोर आरोप-पत्र दाखिल किया है, इसलिए हम उसे रिहा करने के लिए बाध्य हैं। हमें आरोपित को रिहा करते हुए अफसोस हो रहा है, और हम पुलिस को निर्देश देते हैं कि भविष्य में वह ऐसे मामलों में पर्याप्त अनुसन्धान करते हुए पर्याप्त सबूतों के साथ आरोप-पत्र दाखिल किया करे।”
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यह दूसरी घटना भी लगभग उतनी ही पुरानी है। एक बालिका के साथ एक वकील यौन-दुराचार करते हैं। स्वाभाविक रुप से, पुलिस उनपर ‘बलात्कार’ की धारा लगाकर उन्हें अदालत में पेश करती है। अदालत में वकील साहब तर्क देते हैं कि कानून में बलात्कार की “परिभाषा” देखी जाय- उन्होंने पीड़िता की “योनि” में अपने “लिंग” का प्रवेश कराया ही नहीं है, तो फिर “बलात्कार” का आरोप कैसे? जाहिर है, वकील साहब ने अपने लिंग के स्थान पर किसी और वस्तु की मदद से बालिका के साथ यौन-दुराचार किया था।
न्यायाधीश महोदय “बलात्कार” की “परिभाषा” को “शब्दशः” पढ़कर देखते हैं और आरोपित वकील की “विद्वता” एवं “कार्य-कुशलता” से “चमत्कृत” होते हुए उन्हें बाइज्जत बरी कर देते हैं।
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उपर्युक्त दोनों घटनायें सच्ची हैं। भले मैंने अखबारों से इन खबरों की कतरन काटकर नहीं रखी है, न ही मैंने इनके ब्यौरों को डायरी में नोट कर रखा है, मगर मेरा यकीन कीजिये- ये दोनों घटनायें इस देश में घटी हैं और अखबारों में इनकी खबरें छपी हैं। मेरा किशोर मन इन खबरों से बहुत विचलित हुआ था- तभी तो ये मेरे दिलो-दिमाग में अंकित हैं!
हालाँकि यह भी सच है कि दूसरे उदाहरण में उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को पलट दिय था कि कानून की “भावना” देखी जानी चाहिए, न कि उसके “शब्दों” को; मगर मुझे पता नहीं है कि आगे चलकर सर्वोच्च-न्यायालय ने उच्च-न्यायालय के फैसले को पलटा था या नहीं। क्योंकि अपने यहाँ ऐसा अक्सर होता है।
कुछ और भी पुरानी खबरें हैं, जिन्हें पढ़कर मेरा मन उद्वेलित हुआ था और जिस कारण वे मुझे याद रह गयी हैं।
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जमशेदपुर में एक वकील की गर्भवती पत्नी के साथ बलात्कार होता है- सड़क पर- कार से उतारकर। तब वहाँ के सभी वकील एक होकर फैसला लेते हैं- कोई बलात्कारी की पैरवी नहीं करेगा!
यानि अगर हम चाहें कि अदालतों में वकील समुदाय बलात्कारियों को “मासूस” व पीड़िता को “बदचलन” साबित न किया करें, तो इसके लिए पीड़िता को किसी वकील की बहन, बेटी या पत्नी होना पड़ेगा, अन्यथा उसकी खैर नहीं- अदालत में उसकी इज्जत का तार-तार होना तय है!
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इलाहाबाद में संगम के तट पर एक ग्रामीण युवती जब गंगाजी में डुबकी लगाकर बाहर आती है, तो उसके कपड़े गायब थे- चोरी हो गयी होगी। तन ढकने के लिए वह किसी और के कपड़े पहन लेती है। उसपर चोरी का इल्जाम लगता है, मुकदमा चलता है और अँग्रेजों की दी हुई हमारी “महान” न्याय प्रणाली के “विद्वान” न्यायाधीश महोदय “मानवता” को, “परिस्थितियों” को दरकिनार करते हुए “चोर” को कई वर्षों की जेल की सजा सुना देते हैं। सजा तीन साल की थी या पाँच साल की याद नहीं, मगर वह “साल” में ही थी, “महीनों” में नहीं- इतना मुझे याद आ रहा है।
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पूर्वोत्तर के किसी शहर की जेल में एक व्यक्ति 30-35 वर्षों से बन्द था। किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता की नजर इस गुपचुप रहने वाले कैदी पर पड़ती है; या फिर उसे कहीं से थोड़ी जनकारी मिलती है। वह तहकीकात करता है, तो पता चलता है कि उस व्यक्ति को कभी कोई सजा मिली ही नहीं थी! कभी पुलिस उसे “यूँ ही” “उठा” लायी होगी- किसी खाना-पूरी के लिए और बाद में उसे “छोड़ना” “भूल” गयी होगी। ...और उस बेचारे “आम आदमी” की जिन्दगी जेल में ही खप गयी।
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ये पुरानी खबरें हैं। इसके बाद हमने खूब तरक्की है। ताजा उदाहरण है- दिल्ली में चलती बस में हुआ बलात्कार- दरिन्दगी की सीमा को लाँघते हुए। वैसे, यह चूँकि राजधानी में हुआ, इसलिए इसकी चर्चा हो रही है, वर्ना इससे भयानक हादसे इस देश में हो चुके हैं। आज ‘प्रभात खबर’ में सत्यप्रकाश चौधरी जी का छोटा-सा आलेख पढ़ा- सिहर गया। उन्हीं की कुछ पंक्तियाँ-
“छत्तीसगढ़ में एक शिक्षिका सोनी सोरी को नक्सलियों का हमदर्द बताकर पुलिस ने उसके गुप्तांगों में कंकड़ ठूँस दिये-”
“इसी साल अप्रैल में राँची में एक अधेड़ महिला मजदूर के साथ पहले सामूहिक दुष्कर्म किया गया, फिर उसके जननांग को शराब की बोतल फोड़कर क्षत-विक्षत कर दिया गया, अन्ततः उसने दम तोड़ दिया।”
क्या हुआ इन मामलों में?
क्या हो रहा है बलात्कार के 40,000 मामलों में?? तारीख पर तारीख पड़ रही है... पुलिस वाले मोटी घूँस खाकर केस को कमजोर बना रहे हैं... वकील मोटी फीस लेकर बलात्कारी को मासूस व पीड़िता को बदचलन साबित कर रहे हैं... मजिस्ट्रेट मोटी से भी मोटी रकम डकार कर अभियुक्त को जमानत दे रहे हैं... और... पीड़िता तथा उसका परिवार टूट रहा है...
रेंगते-रेंगते कुछ मामले अंजाम तक पहुँचते भी हैं, तो देश की एक “महिला” राष्ट्रपति “वायसराय हाउस” छोड़ने से ऐन पहले सभी बलात्कारियों को क्षमादान देकर जाती हैं- कुछ इस अन्दाज में- मानो, वे महारानी विक्टोरिया हों!
रेंगते-रेंगते कुछ मामले अंजाम तक पहुँचते भी हैं, तो देश की एक “महिला” राष्ट्रपति “वायसराय हाउस” छोड़ने से ऐन पहले सभी बलात्कारियों को क्षमादान देकर जाती हैं- कुछ इस अन्दाज में- मानो, वे महारानी विक्टोरिया हों!
अभी दिल्ली वाले मामले में गनीमत मनाईये कि अभियुक्त किसी अरबपति के शहजादे या नेता के भाई-भतीजे नहीं हैं। अगर ऐसा होता, तो अभी तीन महीनों तक पुलिस छापेमारी करती और उसके भारी जनाक्रोश के चलते अगर अभियुक्त समर्पण कर भी देते, तो काले कोट वालों की लाईन लग जाती उन्हें बेगुनाह और पीड़िता को बदचलन साबित करने के लिए!
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अन्त में अपनी एक बात। सोच रखा था- 2012 के बाद भूल कर भी देश-दुनिया को बदलने की बातें नहीं सोचूँगा... अपने-आप में मगन रहने की नीति अपनाऊँगा। मगर साल के अन्त में इस खौफनाक घटना ने मुझे पुनर्विचार करने पर मजबूर कर दिया है... नहीं, मैं इस देश की व्यवस्था को बदल कर रहूँगा- चाहे मुझे और 4-5 साल कोशिश करनी पड़े!
******* पुनश्च: (23/12)
मैं शर्मिन्दा हूँ कि इस
आलेख में मैंने ऐसा लिखा कि “यह चूँकि राजधानी में हुआ, इसलिए इसकी चर्चा हो रही
है, वर्ना इससे भयानक हादसे इस देश में हो चुके हैं।”
मैं गलत था, क्योंकि मेरी
धारणा थी कि दरिन्दों ने लात-घूँसों से “दामिनी” के पेट पर वार किया होगा, इसलिए
उसकी आँतें क्षतिग्रस्त हुई हैं। कल फेसबुक पर एक पोस्ट को पढ़कर (जिसे बाद में हटा
लिया गया है शायद- मैं भी उसे साझा करने का साहस नहीं जुटा पाया था) पता चला कि लोहे
के सरिये को उसके शरीर के अन्दर गहरे तक घुसाकर उसके आँतों को क्षतिग्रस्त किया
गया है।
यह भारत ही नहीं, दुनिया का
जघन्यतम अपराध है! इसके दरिन्दों को सजा देने के लिए हमारे कानून कम हैं- इन्हें
अलग ढंग की सजा देनी ही पड़ेगी!
पुनश्च: (24.3.2017)
पहले पाराग्राफ में वर्णित घटना के समाचार के कतरन को यहाँ प्रस्तुत किया गया।
पुनश्च: (24.3.2017)
पहले पाराग्राफ में वर्णित घटना के समाचार के कतरन को यहाँ प्रस्तुत किया गया।
कमियाँ इस समाज में बहुत सी हैं , हम भी तब ही सामने आपाते हैं जब जनसमूह एकत्र हो कर घटना विशेष का समुचित विरोध करता है , देश के जनांदोलनो का हश्र देख लीजिये। हमारे जनसेवकों द्वारा ही निर्मम तरीके से कुचले जाते हुवे देख हम कुछ नहीं कर पाते या अपने को असमर्थ पाते हैं।
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