रविवार, 23 दिसंबर 2012

"संक्रमण की चरम स्थिति"?


पिछले दिनों मैं बार-बार यह महसूस कर रहा था कि 31 मई को जेनरल वी.के. सिंह को अपना पद नहीं छोड़ना चाहिए- उन्हें एक साल और सेनाध्यक्ष के पद पर बने रहना चाहिए। इससे सरकार तथा तमाम राजनीतिज्ञों के दिलो-दिमाग पर एक खौफ, एक भय बना रहता और वे “जनविरोध” में एक सीमा से आगे जाने का साहस नहीं कर पाते। मुझे भरोसा था कि साल 2012 में भारत में व्यवस्था-परिवर्तन का दौर शुरु होकर रहेगा- परिवर्तन के लिए सड़कों पर तो जनता ही उतरेगी, मगर चूँकि पुलिस बल उन्हें खदेड़ सकते हैं, इसलिए सेना का “नैतिक” समर्थन इस जनान्दोलन को हासिल रहना जरूरी है।
मगर उन्होंने पद छोड़ दिया... और अब देखिये, जनता का आन्दोलन कितना भी व्यापक हो जाय, सरकार तथा राजनेता (ये गली के कुत्तों के तरह एकजुट हो जाते हैं- जब भी जनता सड़कों पर उतरती है) पुलिस और अर्द्धसैन्य बलों की मदद से उन्हें कुचल ही देगी! रामदेव-अन्ना से हम ज्यादा उम्मीद नहीं कर सकते- इनमें इतना “नैतिक साहस” नहीं है कि किसी आन्दोलन को “अन्जाम” तक पहुँचा सकें। इस वक्त सिर्फ और सिर्फ भारतीय थलसेना का मौन या नैतिक समर्थन जनता के मनोबल को कायम रख सकता है और वर्तमान सेनाध्यक्ष के रहते यह सम्भव नहीं दीखता। हाँ, पूर्व जेनरल वी.के. सिंह अगर आह्वान कर दें, तो अलग बात है।
ध्यान रहे- मैं सारे देश में “आमूल-चूल परिवर्तन” का समर्थक हूँ और उसी की बात कर रहा हूँ। इतिहस गवाह है कि हर बड़े बदलाव का एक “तत्कालिक” कारण होता है- यहाँ “दामिनी काण्ड” को वही तात्कालिक कारण बनाकर जनता चाहे, तो देश की राजनीति को पूरी तरह से बदल सकती है। जब मैं “पूरी तरह से” कह रहा हूँ, तो इसका अर्थ यही है- “पूरी तरह से”! राजनीति बदलने के बाद अँग्रेजों की दी हुई पुलिस प्रणाली, न्याय प्रणाली, प्रशासनिक व्यवस्था, इत्यादि सबको बदलना होगा- क्योंकि इन प्रणालियों-व्यवस्थाओं का जन्म एक “उपनिवेश” पर शासन करने के लिए हुआ था।
मुझे लगता है, संक्रमण का दौर चरम स्थिति में पहुँचने वाला है।
...और अगर इस बार भी जनान्दोलन, जनाक्रोश बेकार चला गया, तो कोई बात नहीं, 2014 के आम चुनाव के वक्त एकबार फिर कोशिश की जायेगी!  

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