सबसे पहले तो एक
कहावत को दुहरा दिया जाय- "युग के साथ मान्यतायें बदलती हैं"। बेशक,
संविधान-सभा में बहुत बहस के बाद यह तय हुआ होगा कि प्रधानमंत्री का चयन सीधे नहीं
होना चाहिए, बल्कि बहुमत प्राप्त दल के नेता को बाद में प्रधानमंत्री बनाना चाहिए।
मगर यह भी सही है कि पत्थर ही हैं, या फिर मुर्दे, जो अपने विचार नहीं बदलते हैं-
खासकर, समय के साथ।
एक जमाने में कहा
जाता था- जले पर पानी मत डालो, दौड़ते वक्त मुँह से साँस मत लो, दौड़कर आकर पानी मत
पीओ.... आज ये मान्यतायें उलट गयी हैं।
आज टीवी पर एक
पूर्व आईएएस अधिकारी (अरूण भाटिया साहब) जबर्दस्त बोल रहे थे (कैग वाले मुद्दे पर)।
उनका भी सुर कुछ ऐसा ही था- पहले कहा जाता था, क्यों मीडिया में गये; आज कहा जाता
है- आरटीआई के तहत जवाब दो। इस प्रकार, मान्यतायें बदलती हैं।
आज के प्रभात खबर
में जो हेडलाईन है, उसमें छोटे अक्षरों में लिखा है- "साधु सन्त बोले : न
एनडीए चाहिए, न यूपीए" और मोटे अक्षरों में लिखा है- "मोदी को बनाओ पीएम"।
यह शीर्षक भी बयाँ करता है कि "सीधे प्रधानमंत्री के चुनाव" का वक्त इस देश
में आ गया है- पार्टी-वार्टी, गठबन्धन-सठबन्धन को हटाओ।
***
सवाल है- यह होगा
कैसे?
जवाब हाजिर है-
1. प्रधानमंत्री
का चयन सीधे नागरिक करें
सबसे पहले तो 5 वर्षों के लिए देश के प्रधानमंत्री का चयन सीधे
नागरिक करें। प्रधानमंत्री वही बने, जिसे देश के 50% से
ज्यादा नागरिकों का मत हासिल हो।
अगर पहली बार में किसी को 50% से ज्यादा मत न मिले (मिलेगा भी
नहीं), तो
सर्वाधिक मत पाने वाले 6 उम्मीदवारों के बीच दूसरे चरण का मतदान कराया जाय; और अगर दूसरे चरण में भी
किसी को 50% से ज्यादा मत ना मिले,तो तीसरे तथा अन्तिम चरण
का मतदान सर्वाधिक मत पाने वाले सिर्फ दो उम्मीदवारों के बीच हो।
(एक मजेदार संयोग यह हो सकता है कि तीसरे चरण के दोनों उम्मीदवारों
को 50-50% मत मिल जायें! ऐसे में, दोनों को ढाई-ढाई वर्षों
के लिए प्रधानमंत्री नियुक्त किया जा सकता है; या दोनों चाहें, तो संयुक्त रुप से काम कर
सकते हैं।)
***
जहाँ तक उम्मीदवारी का सवाल है, इसके तीन विकल्प हो सकते
हैं-
1. ‘कोई भी नागरिक विकल्प’, जिसके तहत किसी भी नागरिक
को (जिसकी आयु तीस साल से ज्यादा हो, जो पागल,दिवालिया, सजायाफ्ता न हो, इत्यादि) प्रधानमंत्री पद
का चुनाव लड़ने का अधिकार प्राप्त हो।
2. ‘अंचलवार विकल्प’- देश को छह अंचलों
(उत्तर-पूर्वांचल, पूर्वांचल, दक्षिणांचल, मध्यांचल, पश्चिमांचल और उत्तरांचल) में बाँटते हुए पहले चरण के मतदान में हर अंचल
से एक-एक सर्वाधिक लोकप्रिय उम्मीदवार का चयन किया जाय और दूसरे चरण का मतदान इन
छह उम्मीदवारों के बीच हो।
3. ‘हस्ताक्षर-अभियान विकल्प’, जिसके तहत उम्मीदवारों को
अपने समर्थक नागरिकों का हस्ताक्षर संग्रह करने के लिए कहा जाय- यही एक
प्रकार से चुनाव का पहला चरण हो जायेगा। सर्वाधिक अंचलों के सर्वाधिक राज्यों से
सर्वाधिक नागरिकों का हस्ताक्षर संग्रह करने वाले 6 उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के
अधिकृत किया जाय।
***
उपर्युक्त तीनों विकल्पों में एक-एक कमी भी है।
पहले विकल्प में समस्या यह आयेगी कि उम्मीदवारों की संख्या काफी
अधिक हो जायेगी। मगर इससे लोगों को इस बात की खुशी भी मिलेगी कि उन्होंने स्कूली
दिनों में नागरिक शास्त्र में ठीक ही पढ़ा था कि “भारत का कोई भी नागरिक देश का प्रधानमंत्री बन सकता
है!” ऐसे भी, अधिकांश ‘अ’-गम्भीर उम्मीदवार पहले चरण में ही बाहर हो जायेंगे।
दूसरे विकल्प में समस्या यह आयेगी कि जिन अंचलों के लोगों ने “जनसंख्या वृद्धि की दर को नियंत्रित” कर लिया है- जैसे कि
दक्षिणांचल वाले, वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे; क्योंकि इस विकल्प में
बेशक, ज्यादा
जनसंख्या वाले उत्तरांचल के उम्मीदवार बढ़त हासिल कर लेंगे।
तीसरा विकल्प जटिल ही कहलायेगा, क्योंकि एक तो
हस्ताक्षरों की “वैधता” पर सवाल उठाये जा सकते हैं और दूसरे, चुनाव आयोग को
सभी उम्मीदवारों के लिए “एक समान” देशाटन की व्यवस्था करनी होगी, वर्ना हवाई यात्रा करने वाले बाजी मार लेंगे।
***
कुल-मिलाकर, उम्मीदवारी के लिए पहला विकल्प ही ठीक जान पड़ता है। पहले चरण में
उम्मीदवारों की ज्यादा संख्या से निपटने के लिए 3 उपाय किये जा सकते हैं-
1. उम्मीदवारों को अपना एक सुस्पष्ट ‘घोषणापत्र’ जारी करने के लिए कहा जाय, जिसमें घरेलू नीति, विदेश नीति, अर्थनीति, रक्षानीति इत्यादि पर उनके विचार हों,
2. उम्मीदवारों को 12 हजार नागरिकों (जनसंख्या का 0.001%) का ‘समर्थन-हस्ताक्षर’ संलग्न करने को कहा जाय-
नामांकन पत्र के साथ; और-
3. ‘ई.वी.एम.’ मशीनों में थोड़ा बदलाव
करते हुए, इसमें “नम्बर बटन” लगाये जायें और (पहले चरण
के) सभी उम्मीदवारों को एक “चुनाव-क्रमांक” आबण्टित किया जाय (चुनाव-“चिह्न” के स्थान पर)।
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हाँ, दूसरे और तीसरे चरण
के चुनाव के लिए “चुनाव-चिह्न” ही आबण्टित किये जायें- इसके लिए ई.वी.एम. में छह बटन ही काफी होंगे, जिनपर “चिह्न” अंकित होंगे। बेशक, इन “चिह्नों” का उपयोग पहले चरण में
नहीं होगा- ये ढके हुए रहेंगे।
रही बात निरे “निरक्षर” लोगों की, जो पहले चरण में बड़ी
संख्या में भाग नहीं ले पायेंगे, तो यह कोई बड़ी
समस्या नहीं है। इसके पीछे दो तर्क दिये जा सकते हैं-
1. मतदाताओं को निरक्षर एवं अशिक्षित बनाये रखने के हिमायती राजनीतिक
लोग खुद ही मतदाताओं को “साक्षर” बनाने में जुट जायेंगे!
(कोई बुरा न माने, राजनीतिक दलों की रैलियों में
निरक्षर/अशिक्षित/बेरोजगार लोगों की भीड़ जुटाना ज्यादा आसान है; बनिस्पत शिक्षित/रोजगारशुदा लोगों के- यह एक सच्चाई है।)
2. पहले चरण के मतदान में ज्यादातर “शिक्षित एवं साक्षर” मतदाताओं के भाग लेने का
फायदा यह होगा कि अगम्भीर तथा कम योग्य उम्मीदवार छँट जायेंगे और बेहतर तथा
योग्यतर छह उम्मीदवार मैदान में बचेंगे, जिनकी जनलोकप्रियता
दूसरे-तीसरे चरण में उन्हें विजय दिलायेगी।
***
अन्त में, सबसे महत्वपूर्ण बात- शपथ लेने से पहले प्रधानमंत्री न केवल अपने राजनीतिक
दल की प्राथमिक सदस्यता से त्यागपत्र दे, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक, गैर-राजनीतिक संस्थाओं से
भी त्यागपत्र दे- अगर वह किसी से जुड़ा है, तो। और अगर वह किसी नौकरी
से जुड़ा है, तो शपथग्रहण से पहले उसे नौकरी देने वाली संस्था उसे प्रधानमंत्री बनने के
लिए ‘विशेष
छुट्टी’ प्रदान
करे। जाहिर है, प्रधानमंत्री पद छोड़ने के बाद वह न केवल अपने राजनीतिक/अराजनीतिक दलों से
फिर से जुड़ सकेगा, बल्कि अपनी छोड़ी हुई नौकरी भी उसे दुबारा मिल सकेगी।
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यह मेरी नयी अवधारणा है- इसे अभी तक मैं
अपने "घोषणापत्र"
में जोड़ नहीं पाया हूँ- वहाँ सीधे प्रधानमंत्री के चयन का एक दूसरा ही तरीका आपको
लिखा मिलेगा। दरअसल, मेरे घोषणापत्र में प्रत्येक घोषणा को "एक ही
वाक्य" में- एक ही पूर्ण विराम के अन्दर लिखने की कोशिश की गयी है, जिसमें
थोड़ी मेहनत लगेगी और मुझे एक साथ दो-तीन अध्यायों में बदलाव करना है, इसलिए "तब तक के लिए" मैंने अपनी इस नई अवधारणा का एक नया ही ब्लॉग "व्यवस्था
परिवर्तन" नाम से बना दिया है- इसमें सांसदों/विधायकों के चुनाव
को "अप्रत्यक्ष" तथा प्रधानमंत्री के चुनाव को "प्रत्यक्ष"
बनाया गया है। इस अवधारणा को अपने "घोषणापत्र" में समेटने के बाद मैं इस
ब्लॉग को हटा दूँगा। तब तक आपके सुझाव का इन्तजार रहेगा...
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