जो वैज्ञानिक, इंजीनियर, तकनीशियन, डिजाइनर इत्यादि मिलजुलकर
हाइड्रोजन बम बना सकते हैं, सुपर कम्प्यूटर बना सकते हैं, अन्तर्महाद्वीपीय मिसाइल
बना सकते हैं, कृत्रिम उपग्रह बना सकते हैं; वे देश की सेनाओं की जरुरतों के
मुताबिक तोप, वायुयान, जलपोत वगैरह नहीं बना सकते- ऐसा मुझे नहीं लगता। देश चलाने
वालों की तरफ से थोड़ी-सी प्रेरणा मिलने पर वे सबकुछ बना सकते हैं। अँग्रेजों के
यहाँ से जाने के तुरन्त बाद भारत ने अपना एक जलपोत बनाकर उसे ब्रिटेन भेजा भी था
कि देखो, हम खुद जहाज बना सकते हैं! मगर यह जोश जल्दी ही ठण्डा पड़ गया।
मुझे यह लगता है
कि सत्ता-हस्तांतरण के बाद देश की सत्ता गलत लोगों के हाथों में चली गयी थी,
जिन्होंने समय के साथ धीरे-धीरे ऐसी व्यवस्था कायम कर दी कि आज की तारीख में शासन,
प्रशासन, पुलिस, सेना और न्यायपालिका इत्यादि के उच्च पदों पर "देशभक्त",
"ईमानदर" और "साहसी" व्यक्ति पहुँच ही नहीं सकते। ऐसा कोई
पहुँच गया, तो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से दवाब डालकर, या फिर जलील करके उसे हटा दिया जाता है। याद
कीजिये, तो ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जायेंगे- भले लोग भूल जाते हों। (क्या किसी को एसबीआई प्रमुख आरके तलवार बनाम संजय
गाँधी प्रकरण याद है? ताजा प्रकरण तो जेनरल वीके सिंह बनाम सरकार का है ही, जिसमें
न्यायपालिका ने भी सरकार का ही पक्ष लिया था!)
खैर, तो बात यह थी
कि सेनाओं की जरुरतों की चीजें हम खुद नहीं बनाते- क्योंकि देश चलाने वाले ऐसा
नहीं चाहते। देश चलाने वाले विदेशों के साथ रक्षा-सौदे करना पसन्द करते हैं। इससे
कई फायदे उन्हें मिलते हैं: 1. दलाली काफी मोटी मिलती है, 2. पैसे को बाहर-बाहर से
ही स्विस बैंकों में पहुँचाया जा सकता है, 3. भेद खुलने का खतरा अपेक्षाकृत कम
रहता है, 4. भेद खुलने पर भी सेना के "मनोबल" का मुद्दा उछालकर मामले को
दबाना आसान होता है, और 5. इसी बहाने बहुतों को गोरी चमड़ी वाली कुछ हसीनाओं के साथ
हमबिस्तर होकर गधा जन्म छुड़ाने का मौका मिल जाता है!
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जिस प्रकार, इस
देश के हर सरकारी-अर्द्धसरकारी विभाग में हर काम के लिए- खासतौर पर दो-नम्बरी
कामों के लिए- घूँस एवं दलाली की रकम तय होती है और यह भी तय रहता है कि किस अधिकारी
व कर्मी को कितना परसेण्टेज मिलेगा, उसी प्रकार रक्षा-सौदों में मिलने वाली दलाली
को भी बाँटने का एक अलिखित दिशा-निर्देश जरुर होगा!
मैं अनुमान लगाता
हूँ कि दलाली की रकम का 60% हिस्सा राजनेताओं को तथा 40% हिस्सा अन्यान्य लोगों को
मिलता होगा। राजनेता अपने हिस्से को दो भागों में बाँटते होंगे- सत्ता पक्ष व
विपक्ष के प्रमुख नेताओं के बीच- 40:20 या फिर 30:30 प्रतिशत के अनुपात में।
अन्यान्य लोगों के लिए जो हिस्सा रहता है, उसे चार बराबर हिस्सों में बाँटा जाता
होगा- 10% देशी दलालों को, 10% वरिष्ठ नौकरशाहों को, 10% सेनाध्यक्षों को दे दिया
जाता होगा और बाकी बचे 10% को "आरक्षित या आपात्कालीन" कोष के रुप में
रखा जाता होगा, जिसका उपयोग ऑडिट, मीडिया, जाँच एजेन्सी इत्यादि के उच्चपदस्थ
अधिकारियों को तोहफे देने में किया जाता होगा।
इस प्रकार, ये
मामले कभी उभरकर सामने नहीं आते और आते भी हैं तो सब भाई-बन्धु बड़े प्रेम से
मिलजुल कर इसकी लीपा-पोती करते हैं।
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आपने ध्यान दिया
होगा कि विदेशों में जब ऐसा कोई मामला उभरता है, तो अक्सर अभियुक्त अदालत में
सच्चाई बयान करते हुए अपना दोष स्वीकार कर लेता है- भारत में ऐसा नहीं होता। यहाँ
अभियुक्तों को अपने आकाओं तथा देश की व्यवस्था पर पूर्ण विश्वास होता है कि उनका
बाल भी बांका नहीं होगा, ज्यादा-से-ज्यादा कुछेक महीने उन्हें जेल में बिताने पड़
सकते हैं और जेल में भी सिपाही दारोगा उन्हें सलाम ही ठोकेंगे! विदेशों में ऐसे
मामलों में "सूत्रधार" (किंगपिन) को पकड़ा जाता है और उसे सजा भी मिलती
है, मगर हमारे यहाँ किंगपिन का नाम तक उभरकर सामने नहीं आता!
देखा जाय, तो "बोफोर्स" की
दलाली इस देश के घोटालों का एक "आदर्श" नमूना है। वीपी सिंह रैलियों में
एक पर्ची को लहराकर कि इसमें बोफोर्स की दलाली खाने वालों के नाम हैं, आम चुनाव
जीत जाते हैं और प्रधानमंत्री बनने के बाद कहते हैं- ऐं, कौन-सी पर्ची?
वीपी सिंह को छोड़ दें, तो भाजपा ने भी
पाँच साल देश चलाया, मगर बोफोर्स के दलालों को नहीं पकड़ पायी। सीबीआई ने बोफोर्स
मामले में एक चवन्नी खोजने के लिए सवा रुपया खर्च करके एक विश्व कीर्तिमान बनाया
है- यह और बात है कि चवन्नी अब भी नहीं मिली है और जाँच बन्द हो गयी है। जब जाँच
बन्द हो गयी, तो बेचारे क्वात्रोच्ची के खातों पर रोक भला क्यों बनी रहे? तो वर्तमान
सरकार के एक आदेश पर क्वात्रोची के विदेशों में स्थित खातों से रोक हटा ली जाती
है, क्वात्रोच्ची सारे पैसे निकाल लेता है और उसके बाद सरकार बड़े भोलेपन से दूसरा
आदेश जारी करती है- पहला आदेश गलती से जारी हो गया था... ! 'गलती' करने वाले का आज
तक पता नहीं चला है!
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हालिया 'ऑगस्टा-वेस्टलैण्ड हेलीकॉप्टर
घोटाले' में भी दलाली की रकम को ऊपर बताये गये अनुपात में मिल-बाँटकर खाया गया
होगा। इटली में भले 'घूँस देने वालों' को सजा हो जाय और भले ही वहाँ भारत में 'घूँस
लेने वालों' के नाम उजागर हो जायें, मगर भारत में 'बोफोर्स घोटाले की आदर्श जाँच'
को देखते हुए हम आश्वस्त रह सकते हैं कि- 1. जाँच कभी पूरी नहीं होगी, 2. कोई दोषी
साबित नहीं होगा, 3. किसी को सजा मिलने की तो खैर, कल्पना ही नहीं की जा सकती!, 4.
दलाली की रकम की जब्ती/बरामदगी नहीं होगी, और 5. अगला घोटाला सामने आते ही (तीन से
छह महीने का समय लगता है- किसी अगले घोटाले के तूल पकड़ने में) इस घोटाले को सब भूल
जायेंगे।
हाँ, इस बीच इतना
जरुर होगा कि- 1. पक्ष-विपक्ष के नेता एक-दूसरे के साथ "नूरा-कुश्ती"
खेलेंगे, 2. सीबीआई के उच्चाधिकारी विदेश (इटली-ब्रिटेन) दौरे करेंगे और 3. ये
तीनों मिलजुलकर इतने नाम उछालेंगे, मामले को इतना उलझायेंगे कि दो-तीन हफ्ते बाद
ही इसका 'सिरा' खोजना मुश्किल हो जायेगा- देख लीजियेगा।
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आज स्थिति यह है भारतीय घपलों, घोटालों,
दलालियों पर एक "कोश" (इनसाइक्लोपीडिया) तैयार किया जा सकता है और
साहित्य से लेकर अर्थशास्त्र तक के शोधार्थी भारतीय भ्रष्टाचार की विशिष्ट शैली
आदि पर प्रबन्ध लिखकर डॉक्टरेट की डिग्री हासिल कर सकते हैं!
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आपका कहना सही है !!
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट को लिखने के हफ्ते बाद 22 फरवरी (2013) के अखबार (प्रभात खबर)में एक लेख (लेन-देन के लिए फर्जी कम्पनियों का सहारा)देखा, जिसमें बड़े रक्षा-सौदों में मिलने वाली दलाली के बँटवारे पर लिखा गया है:
जवाब देंहटाएं"किसकी कितनी हिस्सेदारी
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रक्षा मामलों के जानकार बताते हैं कि किसी भी रक्षा सौदे में कुल मूल्य का 10-12 फीसदी हिस्सा घूस या दलाली के तौर पर बंटता है. इसमें सबसे बड़ा हिस्सा राजनेताओं को मिलता है, जबकि बिचौलियों को दो से पांच फीसदी प्राप्त होता है. इन दोनों से शेष बची राशि रक्षा सौदों में सहायता प्रदान करनेवाले नौकरशाहों और सेना के अधिकारियों में बांटी जाती है."
यानि रक्षा मामलों के जानकारों तथा मेरे अनुमानों में कोई ज्यादा अन्तर नहीं है। बिचौलियों को 2 से 5 फीसदी का जो अनुमान विशेषज्ञ लगा रहे हैं, मेरे ख्याल से, वह एक बिचौलिये के लिए होगा। बिचौलिये कई होते हैं, सो कुल मिलाकर वे 10 प्रतिशत (दलाली का, सौदे का नहीं) पा ही जाते होंगे!