रविवार, 10 फ़रवरी 2013

106. लॉर्ड मेघनाद देसाई के विचार



       मैं अन्ना हजारे के आन्दोलनों का समर्थन इस लिहाज से करता हूँ कि "अच्छे" लोगों का "सक्रिय" रहना जरूरी है। मगर उनके आन्दोलनों से "राष्ट्रीय" या "अन्तर्राष्ट्रीय" स्तर पर देश में कोई बदलाव आ जायेगा- ऐसा मुझे नहीं लगता। "सत्ता थामने से बचते हुए" आन्दोलन चलाकर आप छोटे स्तर पर बदलाव ला सकते हैं- जैसा कि रालेगण सिद्धि तथा आसपास के गाँवों में बदलाव आया भी है; मगर राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बदलाव लाने के लिए आपको "सत्ता की बागडोर थामनी" ही होगी! खासकर, अन्ना की जो मुख्य माँग है कि सरकार सशक्त लोकपाल का गठन करे- इससे मैं सहमत नहीं हूँ। हम चूहों से कभी उम्मीद नहीं रख सकते कि वे खुद अपने लिए चूहेदानी का निर्माण करेंगे! और फिर, भ्रष्टाचार-रोधी कानूनों की कोई कमी है क्या? मैंने पाया, कि मेरे विचार गलत नहीं हैं, लॉर्ड मेघनाद देसाई ने भी ऐसा ही कहा है:
       अन्ना का आंदोलन जिन मुद्दों को लेकर था, उनमें कोई दम नहीं है. आप कानून बनाने की मांग कर रहे हैं. पहले से ही तमाम कानून हैं, एक और बन जायेगा तो क्या हो जायेगा. भारत में भ्रष्टाचार का मुद्दा कानून का मुद्दा नहीं है. यहां भ्रष्टाचार की बीमारी मौजूद कानूनों का सही क्रियान्वयन न होने की वजह से है.
भ्रष्टाचार कोई पब्लिक सेक्टर की चीज नहीं बल्कि हमारे निजी व्यवहार से जुड़ा हुआ है. इसलिए और कानून बना कर इस बीमारी से मुक्ति नहीं मिल सकती, जबकि अन्ना का आंदोलन कानून पर निर्भरता की बात करता है. यदि कानून बनना ही समस्याओं का हल होता, तो भारत कबका एक आदर्श देश बन चुका होता.
        हाँ, मैं जहाँ यह मानता हूँ कि बदलाव कभी "नीचे से" नहीं आ सकता, यह "ऊपर से" ही आयेगा और इसके लिए नेताजी सुभाष-जैसे किसी व्यक्ति को कम-से-कम दस वर्षों के लिए इस देश का प्रधानमंत्री बनाना पड़ेगा, जो लगभग "डिक्टेटर" की तरह क्रान्तिकारी बदलाव ला सके (माफ कीजियेगा, मैं मोदी समर्थक नहीं हूँ- मैं उन्हें "आम जनता" का हिमायती नहीं मानता हूँ, उन्हें मैं "पूँजीपतियों-उद्योगपतियों का पैरोकार" मानता हूँ! मैं केजरीवाल समर्थक भी नहीं हूँ- उनकी "अकड़ी हुई भाव-भंगिमा" एक तो मुझे ऐसे ही अच्छी नहीं लगती, दूसरे, मुझे नहीं लगता कि उनके पास "देश के पुनर्निर्माण का कोई खाका" है- वे शायद दिल्ली का मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं- बस!); वहीं देसाई साहब "नीचे से" बदलाव की बात करते हैं:
       दरअसल, हम भारतीय हर बात के लिए सरकार का मुंह देखने के आदी हैं, कानूनों पर हमारी जरूरत से ज्यादा निर्भरता है. ब्यूरोक्रेसी पर भी हम जरूरत से ज्यादा निर्भर हैं. जरूरत है कि हम लोग अपने निजी व्यवहार को बदलें, निजी व सामूहिक आंदोलन के जरिये भ्रष्ट अफसरों पर दबाव बनायें. इसके लिए एक आम-आदमी को दूसरे के साथ खड़ा होना पड़ेगा.
       ***
       कुछ समय पहले मैंने ('दामिनी' काण्ड के खिलाफ उपजे) दिसम्बर के युवा आन्दोलन को "संक्रमण की शुरुआत" कहा था। तब एक साथी का मानना था कि मैं मुट्ठीभर युवाओं के सड़क पर उतर जाने से कुछ ज्यादा ही उम्मीद रखने लगा हूँ। मगर देसाई साहब के विचार पढ़कर मुझे लग रहा है कि मैं सही हूँ। देश के युवा वर्ग ने क्रान्ति की "प्राथमिक शिक्षा" 2011 के अगस्त में (अन्ना-आन्दोलन के दौरान) हासिल कर ली थी; दिसम्बर'12 में उसने क्रान्ति का "हाई-स्कूल" पास कर लिया है; अगले किसी आन्दोलन में वे "स्नातक" भी हो जायेंगे; और उसके बाद देश में परिवर्तनों की आँधी वे ही लायेंगे।
देश की "आम जनता" या तो "कोऊ नृप भये" के सिद्धान्त पर चलती है; या फिर, "भावनात्मक लहरों" पर सवार हो जाती है। रही बात पढ़े-लिखे जागरुक नागरिकों की, तो इनकी "जागरुकता" देश के किसी काम की नहीं! आप 'फेसबुक' को 'नमूना' मानते हुए सर्फिंग कर के देख लीजिये- यहाँ "मोदी समर्थक" और "केजरीवाल समर्थक" बहुत मिल जायेंगे- एक-दूसरे की टांग-खिंचाई करते हुए, मगर "भारतीय" शायद सौ में एक ही मिले!
खैर, देसाई साहब के विचार:
दिल्ली में गैंग रेप कांड को लेकर हुआ युवा प्रदर्शन अन्ना के मुकाबले बड़ा आंदोलन था. आंदोलन का मतलब क्या? दिल्ली में हुए युवा प्रदर्शन को देखिए, जाति, धर्म, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब कोई खाई नहीं थी. हर वर्ग से युवाओं ने इसमें भाग लिया. मुझे तो यह आंदोलन बहुत दूरगामी असर वाला प्रतीत हो रहा है. हमारे जैसे बंटे हुए समाज में जोड़ने वाली चीजें ही नये का निर्माण करेंगी.
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देश के शिक्षित एवं जागरुक नागरिकों से मेरे निराश होने का एक कारण यह भी है कि यह वर्ग आज तक जात-पाँत की बेड़ियों से मुक्त नहीं हो पाया है। (किसी भी अखबार के 'वैवाहिक विज्ञापन' देख लीजिये- शिक्षित वर्ग कितना रूढ़िग्रस्त है!) अगर 'वर्ण-व्यवस्था' को सही मान भी लिया जाय, तो भी इस व्यव्स्था में "ऊँच-नीच" की भावना नहीं होनी चाहिए- कोई कोई भी काम करे, उसे छोटा या बड़ा क्यों माना जाय? समाज का हर अंग अपना-अपना काम कर रहा है, इसमें ऊँच-नीच का भेदभाव भला क्यों? मैंने पाया कि मेरे विचार इस मामले में भी सही दिशा पर हैं। लॉर्ड मेघनाद देसाई कहते हैं:
लार्ड देसाई ने कहा कि निश्चित तौर पर बांग्लादेश सामाजिक मोर्चे पर भारत से अच्छा प्रदर्शन कर रहा है क्योंकि वहां जाति प्रथा नहीं है. जाति प्रथा भारत की सबसे बड़ी समस्या है. जो समाज यह मानता हो कि मैला उठाना किसी जाति विशेष का काम है, वह समाज कभी मैला उठाने के बेहतर और सक्षम तरीके कभी ईजाद ही नहीं कर सकता.
वह सवाल खड़ा करते हैं कि अद्वैत और ब्रह्म को मानने वाला समाज अपनी आधी आबादी को रद्दी मानता है, इस तरह के विरोधाभास के साथ समाज कैसे आगे बढ़ेगा?
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मैं अक्सर यह कहता हूँ कि देश के राजनेता तथा कुछ विदेशी शक्तियाँ देश को आर्थिक दिवालियेपन की ओर धकेलने तथा इसे एक असफल राष्ट्र बनाने की कोशिश कर रही हैं; साथ ही, मैं एक "खुशहाल, स्वालम्बी, शक्तिशाली" भारत के निर्माण के प्रति आशावान भी हूँ। यहाँ भी मैं सही लग रहा हूँ- देसाई साहब का बयान:
मैं अभी की स्थितियों में निराशावादी लेकिन व्यापक तौर पर आशावादी हूं. आर्थिक मोर्चे पर भारतीय अर्थव्यवस्था की कई दिक्कतें हमारी अपनी पैदा की हुईं हैं, जो जोखिम ले सकने में केंद्र की विफलता के चलते खड़ी हुई हैं. लेकिन असली समस्या है हमारे राजनीतिक तंत्र में भ्रष्टाचार और निजी क्षेत्र पर इसका दबाव.
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लॉर्ड देसाई साहब कहते हैं:
हमारी अर्थव्यवस्था की ताकत तो निजी क्षेत्र ही है, लेकिन जैसे ही कोई उद्यमी बड़ा होने लगता है, राजनीतिक तंत्र उससे उसी अनुपात में उगाही बढ़ाता जाता है. इसे हर कोई जानता है पर इसका कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं है कि हमारे देश के राजनीतिक दल निजी क्षेत्र के काले धन से ही चलते हैं. इस संस्कृति को उखाड़ फेंकना बहुत ही कठिन है.
बेशक, इससे आगे कुछ कहना उन्हें शोभा नहीं देता। मगर इससे आगे का आकलन मैंने कर रखा है- अगर देश का "युवा" सड़कों पर उतरे और उसे "जवानों" का "मौन या नैतिक" समर्थन प्राप्त हो जाय, तो इस सड़ी-गली व्यवस्था को उखाड़ कर फेंका जा सकता है और इसके स्थान पर नयी व्यवस्था कायम की जा सकती है।
साथ ही, मैं यह भी दावा करता हूँ कि अगर वर्तमान-व्यवस्था के माध्यम से ही- बिना कोई क्रान्तिकारी बदलाव लये यह देश महान बन जाता है, तो इस देश में मुझसे ज्यादा खुश कोई और नहीं हो सकता!
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(साभार: कल के 'प्रभात खबर'  में लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स के प्रोफेसर एमीरेट्स लार्ड मेघनाद जगदीशचंद्र देसाई के साथ राजेंद्र तिवारी की अनौपचारिक बातचीत प्रकाशित हुई थी- http://prabhatkhabar.com/node/262586?page=show

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