सरकारी उपक्रमों,
खासकर मुनाफा कमाने वाले उपक्रमों में "विनिवेश" का कार्यक्रम हो सकता
है कि 1991 में शुरु हुए उदारीकरण के साथ ही शुरु हो गया हो, मगर मेरे जेहन में
भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के शासनकाल की याद ताजा है, जब "विनिवेश" को
बहुत ही आक्रामक तरीके से लागू किया गया था!
अभी दो-एक रोज
पहले एनटीपीसी में विनिवेश की सीमा बढ़ाई गयी- जहाँ तक मुझे याद है, यह भी मुनाफा
देने वाला सरकारी उपक्रम है। मेरी नजर में विनिवेश एक शर्मनाक प्रक्रिया है, इससे
जो बातें स्पष्ट होती हैं, वे हैं-
1.
पहले तो जनप्रतिनिधिगण अपनी तनख्वाह वगैरह
बेतहाशा बढ़ा लेते हैं, विदेश-यात्राओं में जमकर फिजूलखर्ची करते हैं, और फिर पैसा
पूरा करने के लिए विनिवेश का रास्ता चुनते हैं;
2.
पुलिस, प्रशासन, माफिया, ठीकेदार, इंजीनियर
वगैरह का गठजोड़ बनाकर जनप्रतिनिधिगण पहले तो योजनाओं का पैसा लूटते-बाँटते हैं और
फिर पैसे की कमी को पूरा करने के लिए विनिवेश का रास्ता चुनते हैं;
3.
पहले तो जनप्रतिनिधिगण पूँजीपतियों-उद्योगपतियों
से मोटी रकम लेते हैं चुनाव में खर्चने के लिए और फिर बाद में मुनाफा देने वाले
सरकारी उपक्रमों की हिस्सेदारी उन्हें पुरस्कार के रुप में देने के लिए विनिवेश का
रास्ता चुनते हैं।
***
"विनिवेश" के मुकाबले मैंने जो
नीति तैयार की है, वह निम्न प्रकार है:
11.6 बड़ी संख्या में आम लोगों को रोजगार दिलाने वाले
और आम लोगों की जरुरत की वस्तुएँ/सेवायें पैदा करने वाले उपक्रमों की 50 फीसदी
हिस्सेदारी राष्ट्रीय सरकार अपने पास रखेगी तथा बाकी 50 प्रतिशत हिस्सेदारी उस
उपक्रम के ‘कार्यशील’ मजदूरों एवं कर्मियों के
बीच बाँट देगी।
11.7 जिन उपक्रमों द्वारा उत्पादित सेवाओं/वस्तुओं का
आम जनता की जरुरत से सम्बन्ध नहीं है या कम है, उन सबका निजीकरण किया जायेगा। (जैसे कि- एयरलाइन्स)
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