मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

108. क्या महिलाओं के सशक्तिकरण की सम्भावना इस देश में है?



       देश की न्यायपालिका के प्रति सम्मान रखते हुए मैं एम.जे. अकबर साहब के एक लेख ('प्रभात खबर' में प्रकाशित) से कुछ पाराग्राफ उद्धृत करता हूँ:
        कानून और न्याय दोनों ही मानवीय हैं, इसलिए इसमें हमेशा कुछ छूट जाने या कोई चूक होने की गुंजाइश बनी रहती है. लेकिन, हम न्याय के मामले सुप्रीम कोर्ट को आखिरी शब्द के तौर पर स्वीकार करते हैं क्योंकि हमें इसकी ईमानदारी पर इस सीमा तक यकीन जरूर है कि कभी-कभार हो जानेवाली चूक भी ईमानदार ही होती है. न्याय प्रणाली जिन स्थापित माध्यमों से अपनी विश्‍वसनीयता की रक्षा करती है, उनमें न्यायालय की अवमाननाके सिद्धांत का महत्वपूर्ण स्थान है.
अगर आप घर में रहना चाहते हैं, न कि जेल में तो आपको कोर्ट के फैसले पर असहमति प्रकट करने की सलाह नहीं दी जा सकती. लेकिन हमें यकीन है कि श्रीमान हमें विस्मय प्रकट करने की थोडी आजादी जरूर देंगे! 
       ***
       पांच फरवरी को अखबारों में यह खबर छपी कि पी सथाशिवम और जेएस खेकर की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने उस व्यक्ति की मौत की सजा को बरकरार रखा है, जिसने एक सात साल के बो को अगवा कर लिया था और जब उसे उसके एवज में फिरौती नहीं मिली, तो उसकी हत्या कर दी थी. न्यायाधीशों ने यह निष्कर्ष निकाला कि उन्हें अपराधी में किसी सुधार की कोई आशा नजर नहीं आती. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि उसकी विकृति अमानवीय थी और यह कि उसने काफी सोच-समझ कर और शांत दिमाग से योजना बना कर उस लड.के की हत्या की. यह सब पूरी तरह सही है. उन्होंने मृत्युदंड को बरकरार रखने के लिए जो तर्क दिया उस पर कोई बहस नहीं की जा सकती. लेकिन अपने फैसले का औचित्य बताते हुए उन्होंने जो लिखा, उसमें एक अजीब दिलचस्प बात थी. इसे न्यायाधीशों ने मृत्युदंड के पक्ष को मजबूत करने वाला बताया. मैं उसे उद्धृत कर रहा हूं- मृतक के अभिभावक को तीन बेटियां और एक बेटा था. एक मात्र बेटे को अगवा करने का मकसद मां-बाप के मन में अधिकतम भय पैदा करना था. जानबूझ कर एक मात्र बेटे की हत्या करना उसके अभिभावकों के लिए गंभीर परिणाम देनेवाला होगा’. पीठ ने अपनी बात को आगे बढाते हुए कहा,‘माता-बाप के लिए अपने इकलौते बेटे को गंवाने का दुख, जो उनके वंश को आगे बढाता और बुढ.पे में उनकी देखभाल करता, किसी तरह मापा नहीं जा सकता.
ऐसी सोच के निहितार्थ चौंकानेवाले हैं. इसका एक अर्थ यह है कि अभिभावकों का दुख तब कम होता, अगर उनकी तीन बेटियों में से किसी के साथ यह अपराध किया गया होता, क्योंकि बेटी न उनके वंश को आगे बढाती, न बुढ.पे में उनकी देखरेख करती. न्यायाधीशों ने इकलौते बेटेपर पूरा जोर दिया. आखिर न्यायाधीश किस दुनिया में रह रहे हैं?
       यह दुनिया कौन सी है, इसे एक सप्ताह पहले आये एक और फैसले से समझा जा सकता है. यह फैसला भी मृत्युदंड के खिलाफ याचिका पर आया. इस पीठ में जस्टिस सथाशिवम थे- जस्टिस एफएमआइ कलिफुल्ला के साथ. सुप्रीम कोर्ट के दोहरे मापदंडों के बारे में एक भय का एहसास किये बगैर इस फैसले को दोहराना कठिन है. उनके समक्ष एक ऐसे व्यक्ति का मामला था, जिसे ट्रायल कोर्ट और हाइकोर्ट, दोनों ने ही कसूरवार ठहराते हुए फांसी की सजा सुनायी थी. उस बर्बर हत्यारे ने अपनी नाबालिग बेटी के साथ दुष्कर्म किया. पुलिस में उसकी पत्नी द्वारा शिकायत किये जाने पर उसे गिरफ्तार किया गयाथा. जब वह पैरोल पर छूट कर आया तब उसने अपनी बेटी और पत्नी दोनों की ही कुल्हाड. से हत्या कर दी.
यह घृणित बर्बर हत्यारा जस्टिस सथाशिवम और कलिफुल्ला की बदौलत जीवित रहने का आदेश पा चुका है. किसी को आश्‍चर्य हो सकता है कि दुष्कर्म और लैंगिक पूर्वाग्रहों के खिलाफ देशभर में उपजा भीषण ज्वार सुप्रीम कोर्ट को छू कर नहीं गया? मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर ने जरूर स्त्रियों की आक्रोश भरी आहों को सुना है. उन्होंने कहा कि अगर यह मुमकिन होता, तो वे भी दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे लोगों में शामिल होते. 
क्या मुख्य न्यायाधीश तब लाचार थे, जब सुप्रीम कोर्ट के उनके सहयोगी इस तरह के विरोधाभासी फैसले सुना रहे थे. ट्रायल कोर्ट और हाइकोर्ट भविष्य में क्या करेंगे जब अपनी नाबालिग बेटी के साथ दुष्कर्म और उसकी हत्या करनेवाला अपराधी उनके समक्ष लाया जायेगा, जिसने अपनी पत्नी की भी इस कारण हत्या की हो, कि वह उसकी मां है. क्या तब वे मृत्युदंड देने से काफी दूर ठिठक जायेंगे, क्योंकि जस्टिस सथाशिवम और जस्टिस कलिफुल्ला ने अपने फैसले से एक परंपरा कायम कर दी है. क्या एक दुष्कर्म की शिकार बनायी गयी और हत्या कर दी गयी नाबालिग किशोरी के जीवन का मूल्य एक अगवा करके हत्या कर दिये गये लड.के के जीवन से कम है! क्या एक व्यक्ति जिसने दो स्त्रियों की हत्या की वह दया का पात्र है और एक लड.के की हत्या करनेवाला फांसी पर चढ. दिये जाने का! क्या यही न्याय है! माननीय सुप्रीम कोर्ट के पास चुप रहने का विकल्प है. हम अपने सवालों को एक सीमा के बाद आगे नहीं ले कर जा सकते. क्या सुप्रीम कोर्ट चुप रहने के विकल्प को ही जवाब के तौर पर चुनेगा! 
(http://epaper.prabhatkhabar.com/epaperpdf//1222013//1222013-md-hr-8.pdf)
        ***
        संयोग से कल ही मैंने स्वामी विवेकानन्द जी उस कथन को फेसबुक पर साझा किया था, जिसमें उन्होंने महिलाओं के सशक्तिकरण के बिना इस देश (बल्कि दुनिया) की तरक्की को असम्भव बताया है।
       हलाँकि मैं खुद यह समझ नहीं पा रहा हूँ कि सरकार की ओर से महिला सशक्तिकरण के लिए क्या किया जाना चाहिए? क्योंकि यह "संस्कार" का मामला है। फिर भी, जितना मेरा दिमाग है, उतना सोचते हुए मैंने खुशहाल भारत में महिला सशक्तिकरण की एक योजना प्रस्तुत की है:
       24.1      जनसंख्या वृद्धि के लिये जो सामाजिक तबके और भौगोलिक क्षेत्र मुख्य रुप से जिम्मेवार हैं, उन तबकों तथा क्षेत्रों को प्राथमिकता देते हुए बिना किसी शैक्षणिक योग्यता के बन्धन के 16 से 20 वर्ष तक की अविवाहित महिलाओं को भर्ती करते हुए एक सम्पूर्ण महिला सैन्य टुकड़ी का गठन किया जायेगा।(इसे 'शक्ति सेना' कह सकते हैं।)
24.2      इस सैन्य टुकड़ी में महिलाओं को 28 वर्ष की उम्र में नौकरी छोड़ने की विशेष छूट होगी, ताकि वे विवाह कर सामान्य गृहस्थ जीवन बिता सकें। (नौकरी न छोड़ने वाली महिलाओं को भी 28 वर्ष की उम्र के बाद ही विवाह की अनुमति दी जायेगी।)
24.3      नौकरी छोड़ते समय जितने वर्षों की सेवा किसी महिला ने की होगी, उतने ही वर्षों का अतिरिक्त वेतन उन्हें एकमुश्त धनराशी के रुप में दिया जायेगा।
24.4      इस सैन्य टुकड़ी के जिम्मे सेना के वे काम होंगे, जिन्हें सीमा से दूर रहकर भी अंजाम दिया जा सकता है (जैसे- सेना डाकघर)।
24.5      यहाँ महिला सैनिकों के लिये सामान्य शिक्षा-दीक्षा की भी व्यवस्था होगी।
24.6      अन्यान्य सरकारी नौकरियों में भी महिलाओं को 28 वर्ष की उम्र में नौकरी छोड़ने, एकमुश्त धनराशी (जितने वर्षों की सेवा उन्होंने की है, उतने ही वर्षों के वेतन के बराबर) प्राप्त करने की छूट होगी; साथ ही, नौकरी न छोड़ने की दशा में विवाह करने की अनुमति उन्हें 28 की उम्र के बाद ही प्रदान की जायेगी।
24.7      'शक्ति सेना' या असैनिक (नागरिक) सेवा की जो महिला 28 की उम्र से पहले विवाह कर लेती है, उन्हें भी 28 वर्ष की उम्र में नौकरी छोड़ते समय एकमुश्त धनराशि का लाभ दिया जायेगा- बशर्ते कि वे तब तक माँ नहीं बनी हों।
(http://khushhalbharat.blogspot.in/2009/12/24.html)
इसके अलावे, अश्लीलता एवं कुरीतियों पर भी मैंने कुछ लिखा है:
30.1          देश के सभी सामाजिक/ सांस्कृतिक/महिला संगठनों के प्रतिनिधियों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर एक त्रैमासिक अधिवेशन बुलाया जाएगाजिसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के एकाधिक न्यायाधीश गण करेंगे।
30.2          समाज में विभिन्न तरीके से फ़ैल रही अश्लीलता एवं कुरीतियों पर इस अधिवेशन में चर्चा होगी तथा सर्वसम्मति या बहुमत से इन्हें मिटाने के लिए कुछ निर्णय लिए जायेंगे।
30.3          इस अधिवेशन में लिए गए निर्णयों को क़ानून के बराबर का दर्जा दिया जाएगा और इसके द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों तथा जुर्मानों का सरकारी विभागों द्वारा कड़ाई से पालन किया जाएगा।
30.4          सरकार अपनी ओर से सरकारी नौकरी के इच्छुकों से दहेज़ नही लेने/देने का शपथपत्र भरवायेगी और इसका उल्लंघन होने पर सम्बंधित युवा को सरकारी नौकरी के योग्य नहीं ठहराया जाएगा या नौकरी से निकाल बाहर किया जाएगा। (सामाजिक संस्थाओं को दहेज के लेन-देन की खबर पुलिस में देने के लिये कहा जायेगा।)
30.5          किसी भी समारोहखासकर- विवाह समारोहों में खर्च के मामले में परिवार की सम्मिलित वार्षिक आय से अधिक राशि खर्च नहीं करने की सीमा निर्धारित की जाएगी और उल्लंघन करनेवाले परिवार के सभी कमाऊ सदस्यों को जेल की सजा दी जाएगी। (खान-पानसाज-सज्जास्त्रीधन और उपहारों का खर्च जोड़कर विवाह समारोह या किसी भी समारोह का खर्च निकाला जाएगा।)
30.6          सरकार की ओर से (बेशक, सरकारी खर्च पर) प्रखण्ड स्तर पर सामूहिक विवाह की एक परम्परा शुरु की जायेगी, जिसके तहत 'शरद पूर्णिमा' की रात युवक-युवती परिचय सम्मेलन तथा इसके प्रायः तीन महीनों बाद 'बसन्त पँचमी' के दिन शुभ-विवाह का आयोजन किया जायेगा। (इसके लिए प्रत्येक प्रखण्ड में बाकायदे सामुदायिक भवन बनवाये जायेंगे और इस कार्यक्रम में उन सामाजिक संगठनों का सहयोग लिया जायेगा, जो "जात-पाँत" पर आधारित न हों।)
(http://khushhalbharat.blogspot.in/2009/11/blog-post_21.html)

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