"सैनिकों"
के लिए "मोराल" का बहुत महत्व होता है- मनोबल का। टैंक, जहाज,
गोला-बारूद कितना भी हो, अगर सैनिकों का मनोबल कमजोर हुआ, तो परिणाम घातक हो सकता
है। अफसोस कि अपने देश में "नागरिकों" के मोराल का कभी जिक्र नहीं किया
गया। परिणाम देख लीजिये- 65 वर्षों में हम कहाँ से कहाँ गिर गये! हमारे पास युवा
जनसंख्या की फौज है, हमारी प्रतिभा 'नासा'-जैसी संस्थाओं में योगदान देती है,
हमारे देश की भूमि 'रत्नगर्भा' है खनिजों के मामले में, यह शस्य-स्यामला भी है
अनाजों के मामले में, कभी इसने दुनिया को ज्ञान-विज्ञान बाँटे, आदर्श जीवन जीने की
राह दिखाई, और आज वही देश दिनों-दिन रसातल की ओर खिसकता जा रहा है।
एक राष्ट्र के पास
भौतिक या प्राकृतिक साधन-संसाधन कितने भी हों, अगर उसके नागरिकों का मनोबल निम्न
स्तर का है, तो उसे एक असफल राष्ट्र बनते देर नहीं लगेगी। कहने का तात्पर्य- एक
देश को भौतिक साधनों के मामले में समृद्ध तो होना ही चाहिए, साथ ही साथ, उसके
नागरिकों का मनोबल भी ऊँचा होना चाहिए। तभी वह देश दुनिया की पहली पंक्ति के देशों
में गिना जायेगा।
***
हम भारतीयों को
बीमारी लग गयी है- हर मर्ज की दवा हम बाहर से खरीदते हैं- घरेलू उपचार आजमाने में
हमें शर्म आने लगी है। देश को भौतिक रुप से समृद्ध बनाने का रास्ता नेताजी सुभाष
बताकर गये हैं और नागरिकों के आत्मबल को ऊँचा उठाने की बात स्वामी विवेकानन्द
बताकर गये हैं, मगर हम सिर्फ 12 और 23 जनवरी के दिन इन्हें याद करना पर्याप्त
समझते हैं। इनकी बातों से प्रेरणा लेना जरूरी नहीं समझते।
नेताजी सुभाष ने
हरिपुरा काँग्रेस अधिवेशन (1938) के अपने अध्यक्षीय भाषण में आजादी के बाद के भारत
के पुनर्निर्माण का खाका खींचते हुए कहा था-
"मेरे दिमाग में इस बात को लेकर जरा
भी सन्देह नहीं है कि गरीबी, अशिक्षा तथा बीमारियों को दूर करने और वैज्ञानिक ढंग
से उत्पादन एवं वितरण व्यवस्था कायम करने की जो मुख्य राष्ट्रीय समस्यायें हैं, उन्हें
समाजवादी तरीके से ही हल किया जा सकता है।"
मगर हमने क्या
किया? संविधान में संशोधन करके "समाजवादी" शब्द को तो जोड़ दिया, मगर
हकीकत क्या है? एक ओर कूड़े-कचरे की ढेर से जूठन चुनकर खाते हुए बच्चे और दूसरी तरफ
एक व्यक्ति का 27 मंजिला मकान!
मुझे कृष्ण चन्दर
की एक कहानी याद आ रही है, जिसमें दादर पुल के एक तरफ की अट्टालिकाओं व दूसरी तरफ
की झोपड़पट्टियों का जिक्र करके अन्त में पाठकों से वे कहते हैं- मैं आपको
कम्यूनिस्ट बनने के लिए नहीं कहता, बस इतना जानना चाहता हूँ कि आप किसकी तरफ हैं?
साथियों, मेरा भी वही कथन है- समाजवादी मत बनिये, साम्यवादी मत बनिये, सिर्फ इतना
बता दीजिये कि क्या देश में ऐसी स्थिति होनी चाहिए एक तरफ बच्चे जूठनों पर पलें और
दूसरी तरफ कोई 27 मंजिला मकान या 365 कमरों वाले (वायसराय) भवन में रहे?
***
हमें मनोबल या आत्मबल
कहाँ से मिलेगा? बेशक हमारे ही ग्रन्थों से। अब यहाँ मेहरबानी करके धर्म का मामला
न उठाया जाय! धर्म अलग चीज है, देश की संस्कृति अलग। हालाँकि यह भी सच है कि देश
की संस्कृति पर हिन्दू धर्म का प्रभाव है- मगर यह तब की बात है, जब यह "धर्म" नहीं था, इसका कोई "नाम" नहीं था- यह एक आदर्श जीवनशैली थी, बस! यह प्रभाव एक स्वाभाविक बात थी। फिलहाल सभी को इस
संस्कृति पर गर्व करना ही पड़ेगा, इसके ग्रन्थों से प्रेरणा लेनी ही पड़ेगी, तब जाकर
हमारी आध्यात्मिक उन्नति होगी, हमारा नैतिक बल, हमारा आत्मबल. मनोबल शक्तिशाली
होगा और विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी हम गलत राह पर नहीं चलेंगे, हम
"आत्म"-अनुशासित रहना सीखेंगे। ध्यान दीजिये- देश के प्रायः सभी सरकारी-अर्द्धसरकारी
उपक्रमों ने प्राचीन ग्रन्थों से अपने "आदर्श वाक्य" चुन रखे हैं- मगर क्या
इससे यह सिद्ध होता है कि ये संस्थायें "धार्मिक" हैं? इसी प्रकार, बिना
"धर्म" का सवाल उठाये हमें अपने ग्रन्थों से प्रेरणा लेनी होगी, तभी
हमारा आत्मबल ऊँचा उठेगा।
स्वामी विवेकानन्द
के शब्द:
"भारत
को समाजवादी अथवा राजनीतिक विचारों से प्लावित करने के पहले आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक
विचारों की बाढ़ ला दी जाय। सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब
शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें इन सब ग्रन्थों के पन्नों से
बाहर निकालकर, मठों की चहारदीवारियों को भेदकर, वनों की शून्यता से दूर लाकर, कुछ
सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि ये
सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें- उत्तर से दक्षिण और पूर्व
से पश्चिम तक सब जगह फैल जायें- हिमालय से कन्याकुमारी तक और सिन्धु से
ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र वे धधक उठें, सबसे पहले हमें यही करना होगा।"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें