16 फरवरी 2012 को लिखा गया
ऐसा लगता
है कि अगले कुछ दिनों में भारत के सामने अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति का एक
"बारमूदा त्रिभुज" बनने वाला है, जिसके तीन शीर्ष होंगे- वाशिंगटन,
तेहरान और यरूशलम। मास्को और
बीजिंग को इसमें नहीं गिना जा रहा है, क्योंकि वे दोनों नयी दिल्ली पर दवाब डालने
की कोशिश नहीं करेंगे।
ईरान व इजरायल एक-दूसरे के सामने आ गये हैं।
ईरान परमाणु शक्ति हासिल करने के लिए कटिबद्ध है, तो इजरायल चाहता है कि
विश्व-बिरादरी ईरान को आतंकवादी देश घोषित करे। (ध्यान रहे, जॉर्जिया में
बम-विस्फोट के प्रयास तथा नयी दिल्ली, बैंकॉक के बम-विस्फोटों में इजरायल को
निशाना बनाया गया था तथा इन्हें पिछले वर्ष ईरानी परमाणु वैज्ञानिक की (कार बम
विस्फोट) में हुई हत्या के प्रतिशोध के रुप में देखा जा रहा है।)
स्वाभाविक रुप से अमेरीका इजरायल के साथ है,
जबकि रूस और चीन अमेरीका के खिलाफ ईरान के समर्थन में खड़े नजर आ रहे हैं।
ईरान भारत के साथ रहे सदियों पुराने
सांस्कृतिक सम्बन्धों को याद करते हुए यह चाहेगा कि भारत भले खुलकर उसका साथ न दे,
कम-से-कम वह ईरान का विरोध तो न करे। उधर इजरायल भी भारत को पसन्द करता है और वह
भी चाहेगा कि भारत भले खुलकर उसका साथ न दे, मगर कम-से-कम ईरानी परमाणु कार्यक्रम
का तो वह विरोध कर ही दे।
इस दौरान रूस तथा चीन भारत पर किसी प्रकार
का दवाब नहीं डालेंगे, मगर अमेरीका- जैसी कि उसकी फितरत है- ने ईरान के खिलाफ लाईन
लेने तथा इजरायल का साथ देने के लिए भारत पर दवाब बनाना शुरु भी कर दिया है।
***
ये तो रहीं परिस्थितियाँ। अब मेरे विचार।
मेरे हिसाब से, वह व्यक्ति
"सौभाग्यशाली" होता है, जिसे लड़ रहे दोनों ही व्यक्तियों का
"सम्मान" हासिल होता है। यहाँ दुनिया भर में भारत "अकेला"
"सौभाग्यशाली" देश है, जिसे ईरान व इजरायल- दोनों का "सम्मान"
हासिल है। अतः देश के कूटनीतिज्ञों एवं राजनीतिज्ञों, सावधान! एक जरा-सी जबान की
फिसलन भारत की अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति की नैया को इस "बारमूदा त्रिभुज"
में डुबो सकती है!
दूसरी बात, हर मामले में "इस पार या उस
पार" की लाईन नहीं ली जाती। यह वैसी ही स्थिति है। भारत न तो ईरानियों /
शियाओं के दिल को ठेस पहुँचा सकता है और न ही इजरायलियों / यहूदियों के दिल को।
बेहतर होगा कि इस "भावना" को ही भारत अपना "आधिकारिक बयान"
बना ले- "भारत चूँकि दोनों देशों / समुदायों के साथ मित्रता बनाये रखना
चाहता है, अतः वह न किसी एक का पक्ष ले सकता है, और न ही किसी एक के विरोध में जा
सकता है। भारत दोनों देशों / समुदायों के बीच शान्ति चाहता है।"
सिर्फ एक अमेरीका ही है, जो भारत की बाँह
मरोड़ने की कोशिश करेगा। ऐसे में, मेरा आकलन तो यही कहता है कि अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति
में भारत के लिए यह "सुनहरा अवसर" है कि वह अमेरीका को एक तगड़ा झटका
देते हुए बयान दे दे- "अमेरीका इस मामले पर हम पर किसी भी प्रकार का दवाब
बनाने की कोशिश न करे। हम जानते हैं कि हमें क्या करना है।"
अफगानिस्तान में अमेरीकी सैन्य कार्रवाई से
ऐन पहले अमेरीका को भारतीय हवाई अड्डे देने का प्रस्ताव देकर भारत पहले अपनी भद्द
पिटवा चुका है। भारत के लिए यह समय "अमेरीका का पिट्ठू" बनने का नहीं
है, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक "सर्वमान्य नेता" के रुप उभरने
का है।
मैं देख सकता हूँ कि आने वाले समय में
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत का कद बहुत ऊँचा उठने वाला है। अतः भारत को
चाहिए कि वह किसी भी लड़ाई में किसी का भी पक्ष न ले, न ही किसी के दवाब में आये।
चाहे "विश्वयुद्ध" ही क्यों न छिड़ जाये, भारत को "निष्पक्ष"
रहना चाहिए तथा "शान्तिदूत" की भूमिका निभानी चाहिए। ...क्योंकि अगले
चन्द वर्षॉं में "विश्वनेता" के रुप में भारत का उत्थान तय है!
तो फिर याद रहे- जुबान की एक फिसलन, एक गलत
बयान... और भारत की अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति की नैया देश की इज्जत के साथ... रसातल
में..!
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