7 फरवरी 2012 को लिखा गया
कल
पत्रकार-वार्ता में जब राहुल गाँधी से "काले धन" पर उनके विचार माँगे
गये थे, तो वे तिलमिला गये थे। "काले धन" पर एक
शब्द न बोलते हुए वे "काले झण्डे" पर बोलने लगे कि स्वामी रामदेव उनकी
(राहुल की) सभाओं में तीन-चार लोगों को काला झण्डा लेकर भेज देते हैं। उन्होंने यह भी कहा वे काले झण्डे से नहीं डरते और यह
उन्होंने अपनी दादी से सीखा है।
इसके बाद टी.वी. पर प्रतिक्रिया देते हुए दो
वरिष्ठ पत्रकारों ने तीन बातें कहीं- 1. विरोध स्वरुप किसी को काला झण्डा दिखाना
असंवैधानिक नहीं है। कभी काँग्रेस पार्टी भी अँग्रेज लाटों को काले झण्डे दिखाया
करती थी। 2. सरकार ने जब रामलीला मैदान में 4 जून की मध्यरात्रि में सोये हुए सत्याग्रहियों
(जिनमें महिलायें भी थीं) पर "काले डण्डे" चलवाये थे, तब राहुल की बोल
क्यों नहीं फूटी थी? और 3. "काले धन" पर अपने विचार न व्यक्त कर राहुल
गाँधी एक मौका चूक गये।
बेशक, प्रतिक्रियायें सटीक हैं। मगर मैं इसे
दूसरे रुप से देखता हूँ। मेरा मानना है कि "काले धन" पर अपने विचार न
व्यक्त कर राहुल गाँधी ने अप्रत्यक्ष रुप से यह स्वीकार किया है कि हाँ, 1.
विदेशों में बड़ी मात्रा में काला धन है, 2. उसमें सबसे बड़ा हिस्सा हमारे परिवार का
है, 3. उसकी रक्षा के लिए ही मेरी मम्मी राजनीति में आयी, 4. उसे और समृद्ध करने
के लिए ही मैं येन-केन-प्रकारेण 2014 में प्रधानमंत्री बनना चाहता हूँ, और 5. अगर
किसी ने हमारे परिवार के इस काले धन पर नजर लगायी, तो वह मेरी दादी के
"आपातकाल" को याद कर ले!
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