18 फरवरी 2012 को लिखा गया
कल टी.वी.
पर देखा, हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह कानपुर की एक चुनावी रैली में
काँग्रेस के लिए जनता से वोट माँग रहे थे। वे 'सोनिया जी के मार्गदर्शन' तथा 'राहुल गाँधी के नेतृत्व' की
बात कह रहे थे।
इस दृश्य में आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है-
पहले के सभी प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के लिए वोट माँगते आये हैं। मगर मैं सोच रहा
हूँ कि क्या प्रधानमंत्री को दलगत राजनीति से ऊपर, यानि "दल-निरपेक्ष"
नहीं होना चाहिए? आखिर वह "सारे देश" का प्रधानमंत्री है; वह एक
"राष्ट्र" का प्रतिनिधित्व करता है; वह देश के "हर एक नागरिक"
का मुखिया है; है कि नहीं?
क्या भाजपा का कोई प्रधानमंत्री कह सकता है कि देश में रहने
वाले "वामपन्थी" विचारधारा वाले नागरिकों का प्रतिनिधित्व वह नहीं करता?
क्या काँग्रेस का प्रधानमंत्री यह दावा कर सकता है कि वह "हिन्दूवादी"
विचारधारा वाले नागरिकों का प्रतिनिधित्व नहीं करता? इसी प्रकार, काँग्रेसी नागरिक
भाजपाई प्रधानमंत्री को, तथा भाजपाई नागरिक काँग्रेसी प्रधानमंत्री को 'अपना
प्रधानमंत्री' मानने से इन्कार नहीं कर सकते।
एक बार कोई प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ गया, तो फिर वह
देश के सभी नागरिकों का मुखिया बन जाता है- बिना किसी भेदभाव के। वह प्रेमचन्द का
"पंच-परमेश्वर" बन जाता है! देश का हर नागरिक उसे अपना, आने देश का
प्रतिनिधि मानता है।
तो साथियों, प्रधानमंत्री की कुर्सी पर
बैठने वाले व्यक्ति / महिला को शपथग्रहण से ठीक पहले अपने राजनीतिक दल की प्राथमिक
सदस्यता से क्या इस्तीफा नहीं दे देना चाहिए? बेशक नीतियाँ बनाते समय वह
पार्टी-लाईन को ध्यान में रखे, मगर पार्टी के कार्यक्रमों से तो उसे दूर ही नहीं
रहना चाहिए? कभी-कभार पार्टी का अनावश्यक दवाब हमारे प्रधानमंत्री पर पड़ता है-
हमने ऐसा देखा है; क्या इस दवाब से हमारे प्रधानमंत्री को मुक्त नहीं होना चाहिए?
लगता नहीं है
कि इस सुझाव को कोई गम्भीरता से लेगा, या ऐसा नियम बनाने के बारे में सोचेगा; अतः
मैं सिर्फ प्रार्थना ही कर सकता हूँ कि हमारे देश को एक ऐसा प्रधानमंत्री मिले, जो
शपथग्रहण से ठीक पहले अपने दल की प्राथमिक सदस्यता से खुद ही इस्तीफा देकर एक नयी
परम्परा की शुरुआत करे!
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