शुक्रवार, 8 जून 2012

"गठबन्धन" माँ है, तो "पिता" कौन है बसु साहब?


22/4/2012

श्री कौशिक बसु (भारत सरकार के मुख्य 'आर्थिक सलाहकार') ने गठबन्धन सरकारों को वर्तमान आर्थिक कुव्यवस्था के लिए जिम्मेदार ठहराया है। उनके अनुसार, गठबन्धन-धर्म निभाने के चक्कर में सरकार सही एवं कड़े फैसले नहीं ले पाती, जिस कारण नित नये घपले-घोटाले हो रहे हैं। (पहले भी घपले होते थे, "गठबन्ध" दौर में कुछ ज्यादा होने लगे हैं।)
यानि श्री बसु गठबन्धन को आर्थिक-अराजकता की "माँ" मानते हैं। जाहिर है, इसका कोई "पिता" भी होगा। मैं बताता हूँ, इसका "पिता" कौन है। वह है- "आर्थिक उदारीकरण"! और दुर्भाग्य देखिये- इस आर्थिक उदारीकरण को पटरी पर लाने तथा गति देने उद्देश्य से ही श्री बसु चाहते हैं कि 2014 में एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार बने!
देश की जनता को समय रहते आगाह कर देना चाहूँगा कि ये नेता-नौकरशाह हमें "अन्धा" समझते हैं। वे चाहते हैं कि चाय में पड़ी बड़ी-सी गन्दी मक्खी हमें न दीखे और हम उसे चाय के साथ निगल जायें!
यकीन कीजिये- यह "आर्थिक उदारीकरण" ही हमारी आर्थिक-अराजकता का "पिता" है। इसने और "गठबन्धन" ने, दोनों ने मिलकर तमाम घपलों-घोटालों को जन्म दिया है; महँगाई को सुरसा का मुँह बनाया है; अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को कई गुणा चौड़ा किया है; और- देश की अर्थव्यवस्था की 70 प्रतिशत पूँजी को कुल जमा 8,000 लोगों की मुट्ठी में पहुँचाया है!
...और श्री बसु चाहते हैं कि 2014 में एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार बने, जो बेरोक-टोक "आर्थिक-सुधारों" के अगले चरणों को लागू कर सके! मैं आज लिख रहा हूँ- कल यह सच साबित होगा कि श्री बसु 'अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष' और 'विश्व बैंक' की भाषा बोल रहे हैं और सरकार ने उन्हें अपना मुख्य आर्थिक सलाहकार बना ही इसलिए रखा है कि गुप्त रुप से वे इन दोनों संस्थाओं के "एजेण्ट" हैं!
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आज हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि 2014 के आम चुनाव में काँग्रेस को न पूर्ण बहुमत मिलेगा, न ही उसकी अगुआई में कोई गठबन्धन सरकार बनेगी। पूर्ण बहुमत या तो भाजपा को मिलेगा, या उसी के नेतृत्व में एक गठबन्धन सरकार बनेगी। अब बड़ा सवाल- क्या भाजपा आर्थिक-सुधारों के पहिये को उल्टा घुमाने का साहस दिखा पायेगी? जवाब है- नहीं। (जाने-अनजाने में ज्यादातर देशभक्त 2014 में भाजपा को सत्ता सौंपने की वकालत करने लगे हैं, उनके लिए यह एक चेतावनी है।) भाजपा किसी कीमत पर घरेलू उद्योग-धन्धों को "संरक्षण" देने की नीति नहीं अपनायेगी; "शून्य-तकनीक" वाली उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण/उत्पादन की जिम्मेवारी बड़े/मँझोले व्यवसायिक घरानों से छीनकर उन्हें लघु/कुटीर उद्योगों को नहीं सौंपेगी; देश में जड़ें जमा चुकी विदेशी/बहुराष्ट्रीय निगमों को देश से निकाल-बाहर नहीं करेगी; विश्व-व्यापार को सन्तुलन में रखने के लिए जोर नहीं डालेगी; और सूई से लेकर टैंक तक के निर्माण में "स्वदेशीकरण" को नहीं अपनायेगी। यकीन न हो, तो भाजपा के नीति-निर्धारकों से जाकर पूछ लिया जाय!
सत्ता पाकर भाजपा जो करेगी, वह है- "भूमण्डलीकरण", "उदारीकरण", "निजीकरण" और "विनिवेश" को ज्यादा-से-ज्यादा बढ़ावा देना। (जैसा कि श्री बसु चाहते हैं, और जैसा भाजपा पहले कर भी चुकी है।)
कुछ देशभक्त साथियों की सारी उम्मीदें स्वामी रामदेव या/और अन्ना हजारे के भावी आन्दोलन पर टिकी हैं। उनसे कहना चाहूँगा- किसी देश में आमूल-चूल परिवर्तन लाने के लिए सत्ता की बागडोर को थामना जरुरी होता है, और स्वामीजी या अन्नाजी- दोनों ही सत्ता की बागडोर थामने से चूँकि मना कर चुके हैं, अतः इनसे ज्यादा उम्मीदें हम नहीं रख सकते। 1947 में गाँधीजी ने तथा तीस साल बाद 1977 में जयप्रकाश नारायण ने भी (अप्रत्यक्ष रुप से ही सही) सत्ता की बागडोर नहीं थामी थी, जिसका नतीजा हम देख ही रहे हैं।
अन्त में, मैं अपनी पुरानी बात दुहराना चाहूँगा- "गठबन्धन की मजबूरियों" तथा "भूमण्डलीकरण एवं आर्थिक उदारीकरण की बाध्यताओं" से मुक्ति पाते हुए "खुशहाल-स्वावलम्बी-शक्तिशाली" भारत के निर्माण का रास्ता "दस वर्षों की चन्द्रगुप्तशाही" से होकर गुजरता है, कहीं और से नहीं! कृपया इसे मान लीजिये...  

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