शुक्रवार, 8 जून 2012

"कानून पर कानून, संस्था पर संस्था.... "


19 फरवरी 2012 को लिखा गया 

      सन्नी देओल के फिल्मी संवाद "तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख" का इस्तेमाल मुहावरे के रुप में होने लगा है, जो हमारी न्यायपालिका की लेट-लतीफी, संवेदनहीनता तथा (निचली न्यायपालिका में व्याप्त) भ्रष्टाचार को बयाँ करता है
      इसी प्रकार, हमारी सरकारें भी "आतंकवाद से लड़ने" के लिए "प्रयासरत दीखने के लिए" कानून पर कानून बनाती जा रही है और संस्थाओं पर संस्थायें खड़ी करती जा रही है। ताजा मिसाल है (अमेरीकी तर्ज पर) एन.सी.टी,सी. (नेशनल काउण्टर टेररिज्म सेण्टर) के गठन का, जिसके दुरुपयोग की आशंका राज्य सरकारें व्यक्त कर रही हैं।
      सब जानते हैं कि "आतंकवाद के खात्मे" के लिए "इच्छाशक्ति" की जरूरत है, न कि नये-नये कानूनों और संस्थाओं की। यह इच्छाशक्ति सरकार में नजर नहीं आती। सरकार में बैठे लोगों के दिलो-दिमाग में यह भ्रम बैठ गया है कि अगर आतंकवाद के खिलाफ सख्त कार्रवाई की गयी, तो एक समुदाय विशेष का "वोट" उसे नहीं मिलेगा, या कम मिलेगा। पता नहीं, यह भ्रम कब टूटेगा!
      दुनिया में भारत एक "सॉफ्ट" स्टेट के रुप में बदनाम हो चुका है, जो पच्चीस वर्षों से आतंकवाद को झेल रहा है; जिसके सैनिकों को बाँग्लादेश-जैसा पिद्दी देश मारकर फिर उनके शवों को बाँस में पशुओं के तरह लटकाकर सौंप जाता है; पाकिस्तान तो पहले बुरी तरह यातना देकर भारतीय सैनिकों को मारता है फिर उनके क्षत-विक्षत शवों को वापस सौंपता है; चीन को जब उसके जी में आये भारतीय सीमा में घुसने की खुली छूट-सी मिली हुई है; ...और हम "स्थिति पर नजर बनाये" रखते हैं, या "कड़ी प्रतिक्रिया" व्यक्त करते हैं, या फिर, बहुत हुआ तो दूतावास के कुछ "राजनयिकों को तलब" कर लेते हैं।
      ताजा मिसाल देखिये- इतावली सुरक्षाकर्मियों ने भारतीय मछुआरों को मारने के जुर्म में आत्मसमर्पण करने से मना कर दिया और हम उनपर पुलिस या सैन्य कार्रवाई करने के बजाय उनके राजनयिकों के साथ वार्तायें करते हुए "बीच का रास्ता" निकालने में व्यस्त हैं, ताकि ऐसा दीखे कि सरकार उन्हें गिरफ्तार करना चाहती है और वे सकुशल भारतीय जल सीमा से बाहर निकल भी जायें! (फिर उनके 'प्रत्यर्पण' के नाम पर वर्षों तक सी.बी.आई. अधिकारी रोम का 'पर्यटन' करके आया करेंगे!)
      याद कीजिये, अमेरीका पर "एक" आतंकवादी हमला हुआ, उसने बाद में "एक" कानून बनाया और आतंकवादियों को "दुबारा" वहाँ पर मारने का मौका नहीं मिला। अमेरीका ने अपने इस कानून का नाम कोई "आतंकवाद निरोधी" या "आतंकवाद नियंत्रण" कानून नहीं रखा था, बल्कि "देशभक्ति" कानून रखा और इस "देशभक्ति" शब्द ने वहाँ के सुरक्षाकर्मियों से लेकर नागरिकों तक को झकझोर कर जगा दिया। इधर "देशभक्ति" शब्द का इस्तेमाल करने से ही हमारी सरकार ऐसे कतराती है, मानो इससे वह "साम्प्रदायिक" बन जायेगी- इस शब्द को किसी कानून के नाम के साथ जोड़ना तो बहुत दूर की बात है।
      अन्त में- जिन सुरक्षाकर्मियों को आतंकवादियों को "मार गिराने" के लिए "विशेष प्रशिक्षण" दिया जाता है, उन सब कमाण्डो को काले चश्मे पहनाकर नेता-नेतियों के इर्द-गिर्द बुत बनाकर खड़ा कर दिया जाता है और बाकी देश को पुलिस एवं होमगार्ड के भरोसे छोड़ दिया जाता है, जो आतंकवादियों की कार्यशैली तथा उनके द्वारा उपयोग में लायी जाने वाली तकनीक तथा हथियारों के बारे में "विशेष" जानकारी नहीं रखते। तो क्या इस देश से कभी आतंकवाद खत्म होगा?    

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