शुक्रवार, 8 जून 2012

मालदीव के बहाने "जम्बूद्वीप अवधारणा" पर विचार


15 फरवरी 2012 को लिखा गया 

      मालदीव से अबतक जो खबरें आयी हैं, उनके आधार पर दो अनुमान लगाये जा सकते हैं- 1। अपदस्थ राष्ट्रपति नशीद "उदारवादी" सोच के नेता हैं और व्यक्तिगत जीवन में वे "जेण्टलमैन" हैं (उन्हें डेढ़ साल तक "काल कोठरी" में बन्द कर "तख्तापलट" का आरोप स्वीकार करने को कहने वाले जेलरों को उन्होंने राष्ट्रपति बनने के बाद माफ कर दिया था।) 2। उन्हें इस्तीफा देने को मजबूर करने वाली शक्तियाँ "दक्षिणपन्थी" (कड़े शब्द में कहा जाय तो "कट्टरपन्थी") हैं, जिसका नेतृत्व पूर्व राष्ट्रपति गयूम के हाथों में है। चूँकि "अवकाश" लेने की उम्र में भी गयूम फिर से सत्ता हासिल करने के लिए लालायित हैं, अतः उन्हें एक "जेण्टलमैन" तो नहीं ही कहा जा सकता।
      1988 में "दक्षिणपन्थी" गयूम की सत्ता को बचाने के लिए भारत ने मालदीव में हस्तक्षेप किया था; मगर अभी 2012 में "उदारपन्थी" नशीद की सत्ता को बचाने की कोशिश नहीं की गयी। (जबकि यह "पुलिस" का विद्रोह था- 1988 में तो बाकायदे "सैन्य बगावत" हुई थी, जिसे दबाने के लिए भारत को भी सेना भेजनी पड़ी थी!) ऐसा करके भारत विश्व-बिरादरी को क्या सन्देश देना चाहता है, यह तो देश के विदेश मंत्री ही बेहतर बता सकते हैं। मगर इतना है कि अगर उत्तर-प्रदेश विधान सभा के मतदान को देखते हुए ऐसा निर्णय लिया गया है, तो फिर इसे "दुर्भाग्यजनक" के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता।
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      अक्सर देखा जाता है कि दूर-दराज के देशों के साथ सम्बन्ध बनाने के लिए तो भारत लालायित रहता है, मगर अपने पड़ोसी देशों के साथ मधुर सम्बन्ध बनाने में वह कोई रुचि नहीं दिखाता। जबकि सब जानते हैं कि आपत्ति-विपत्ति में निकट के पड़ोसी ही मदद करते हैं- दूर वालों की मदद बाद में आती है, चाहे वे रिश्तेदार ही क्यों न हों! 
      खैर, इस सम्बन्ध में मैं अपनी एक अवधारणा प्रस्तुत करना चाहूँगा, जिसे "जम्बूद्वीप अवधारणा" (Jambudweep Concept) का नाम दिया जा सकता है।
      इस अवधारणा के तहत अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, भूटान, बाँग्लादेश, बर्मा, श्रीलंका, मालदीव, थाईलैण्ड, लाओस, वियेतनाम, कम्बोडिया, मलेशिया तथा इण्डोनेशिया को एक मंच पर आकर एक "संघ" बनाना चाहिए।
      व्यक्तिगत रुप से चूँकि मैं "तिब्बत की आजादी" का समर्थक हूँ (तिब्बत आजाद होने पर चीन की सीमा भारत से नहीं सटेगी), अतः मैं तो यही चाहूँगा कि धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) स्थित तिब्बत की "निर्वासित सरकार" को भी इस संघ की सदस्यता प्रदान की जानी चाहिए। इतना ही नहीं, मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम-जैसे टापू देशों को "मेहमान-सदस्यता" प्रदान की चाहिए, जिनकी संस्कृति की डोर "जम्बूद्वीप" से जुड़ी है।
      इस संघ में कुल सात विभाग होने चाहिए- 1। सभ्यता-संस्कृति, 2। खेल-कूद, 3। शिक्षा-दीक्षा, 4। अर्थ-वित्त, 5। राजनीति-कूटनीति, 6। सैर-सपाटा और 7। सैन्य मेल-मिलाप। सातों विभागों को प्रतिवर्ष अपने सम्मेलन-सह-कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए- बारी-बारी से हर सदस्य देश की धरती पर।
      जहाँ तक "मुख्यालय" की बात है, भारत को निकोबार द्वीप-समूह में से एक टापू इसके लिए दान में दे देनी चाहिए- इस शर्त पर कि वहाँ का हर निर्माण, हर व्यवस्था पर्यावरण के अनुकूल (Eco-Friendly) होनी चाहिए: मसलन, कंक्रीट के स्थान पर झोपड़ीनुमा भवन बनवाये जायें, बिजली के लिए सौर ऊर्जा या समुद्र-तरंग ऊर्जा का उपयोग हो, इत्यादि। 
      सबसे महत्वपूर्ण बात- इस संघ में भारत की हैसियत एक "सामान्य सदस्य" की होनी चाहिए- न कि "बड़े भाई"-जैसी! अगर मालदीव के "वोट" का मोल "एक" है, तो भारत के वोट का मोल भी एक ही होना चाहिए। किसी को "वीटो" की शक्ति नहीं दी जानी चाहिए और हर सदस्य देश को बारी-बारी से अध्यक्षता प्रदान की जानी चाहिए।
      कल्पना की जा सकती है कि जैसे-जैसे इस संघ के कार्यक्रम सफल होंगे, वैसे-वैसे पड़ोसियों के साथ भारत के सम्बन्ध मधुर होते जायेंगे।
      ...मगर ओछी राजनीति में लिप्त हमारे राजनेताओं का ध्यान इस तरफ जाये, तब तो! 

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