शुक्रवार, 8 जून 2012

सोमनाथ चैटर्जी साहब के प्रश्नों का उत्तर


2/4/2012

      पिछले दिनों लोकसभाध्यक्ष रह चुके वरिष्ठ सांसद सोमनाथ चैटर्जी साहब का एक आलेख अखबार में छपा था ('सर्वोपरि तो संसद ही रहेगी' / हिन्दुस्तान / 29 मार्च), जिसकी शुरुआत में उन्होंने देशवासियों से दो सवाल पूछे हैं: "मेरे जेहन में दो प्रश्न हैं। अगर आपके पास इसके जवाब हों, तो जरुर बतायें। पहला, कितने लोग भारतीय संविधान पर विश्वास नहीं रखते हैं, यानि वे लोग जिनका भरोसा संसदीय प्रणाली से उठ गया है? और दूसरा, अगर सचमुच उनका भरोसा संसदीय लोकतंत्र से पूरी तरह उठ गया है, तो उनके पास इसके क्या विकल्प हैं?" अगली ही पंक्ति में वे चुनौती पेश करते हैं: "दावे के साथ कह सकता हूँ कि आप खुद को निरुत्तर पायेंगे।"
      मेरे-जैसे आम आदमी का यह आलेख शायद ही उनतक पहुँचे, क्योंकि उन्हें 'अति महत्वपूर्ण व्यक्ति' का दर्जा प्राप्त होगा, जहाँ तक आम लोगों की आवाज अक्सर नहीं पहुँचती है! फिर भी, मैं उन्हें बता देना चाहता हूँ कि मैं 'निरुत्तर' नहीं हूँ। अगर आपने तीस साल 'संसदीय' राजनीति की है, तो मैं भी पिछले पन्द्रह सालों से देश की एक-एक समस्या पर मन्थन करके उनका समाधान खोजने में लगा हूँ। अतः मैं सर उठाकर आपके प्रश्नों का उत्तर देना चाहता हूँ।
      यह सही है कि हमारा संविधान मुख्य रुप से अँग्रेजों के '1935 के अधिनियम' पर आधारित है और इसमें "देशी" परम्पराओं एवं शासन-प्रशासन प्रणालियों को शामिल करने के बजाय "विलायती" परम्पराओं एवं प्रणालियों को शामिल किया गया है; फिर भी, इस पर हमारा विश्वास कायम है। इसी प्रकार, आधुनिक समय के हिसाब से, "संसदीय प्रणाली" वाली शासन व्यवस्था ही सबसे अच्छी व्यवस्था है, इसमें भी दो राय नहीं है। मैं बस दस वर्षों के लिए इस "संसदीय प्रणाली" को "निलम्बित" करना चाहता हूँ।
कारण तथा विकल्प का जिक्र इस प्रकार है-  
      हमारी व्यवस्था के अन्दर कैन्सर की जो चार गाँठें हैं- भ्रष्ट राजनेता, भ्रष्ट उच्चाधिकारी, भ्रष्ट अरबपति और माफिया सरगना- वे अब "चरम स्थिति" में पहुँच गयी हैं। अगर दो वर्षों के अन्दर (दुहरा दूँ- दो वर्षों के अन्दर!) इन गाँठों को निकाल बाहर न किया गया, तो इस देश की व्यवस्था मर सकती है और देश में अराजकता फैल सकती है।
      कैन्सर की इन गाँठों को व्यवस्था से निकाल बाहर करने के लिए एक "शल्यक्रिया" की जरुरत है। चूँकि "भ्रष्ट राजनेता" वाली गाँठ बाकी तीनों गाँठों की "जननी" है और ये भ्रष्ट राजनेता "संसदीय प्रणाली" के कर्ता-धर्ता हैं, अतः हमारी "संसदीय प्रणाली" इस "शल्यक्रिया" को नहीं कर सकती! (ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कोई इन्सान खुद अपने ऊपर चीरा नहीं लगा सकता!)
      "संसदीय प्रणाली" को "क्लोरोफॉर्म" सुँघाकर दस वर्षों के लिए "बेहोश" करना होगा और दस वर्षों के लिए देश में एक सख्त "तानाशाही" की स्थापना करनी होगी। यह तानाशाही उस "शल्यक्रिया" को करते हुए कैन्सर की चारों गाँठों को व्यवस्था से निकाल बाहर करेगी, दस वर्षों के दौरान "आम जनता" की आकांक्षाओं के अनुरुप सभी जरुरी सुधारों को लागू करेगी, और ठीक दसवें वर्ष में एक "आदर्श" चुनाव का आयोजन कराके देश में एक स्वस्थ, सबल एवं टिकाऊ "संसदीय प्रणाली" की फिर से स्थापना करेगी।
      जहाँ तक सोमनाथ महोदय के स्वभाव को मैं जानता हूँ, मेरा अनुमान है कि "तानाशाही" शब्द का जिक्र आते ही उन्होंने इस आलेख को पढ़ना छोड़ दिया होगा। अगर नहीं छोड़ा है, तो मैं बता दूँ कि जिस तानाशाही की मैं बात कर रहा हूँ, वह "निरंकुश" नहीं होगी, बल्कि उसके मार्गदर्शन के लिए चौदह विद्वानों की एक "चाणक्य सभा" भी होगी। ये चौदह विद्वान निम्न क्षेत्रों/विषयों से हो सकते हैं- पत्रकारिता, समाजसेवा, पर्यावरण, अर्थनीति, संविधान, राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश नीति, नारी सशक्तिकरण, शिक्षा, संस्कृति, विज्ञान, खेल-कूद, किसानी और मजदूरी। यह तानाशाही बेशक "नागरिक" तानाशाही होगी, मगर चूँकि "सेना की पहल" तथा "न्यायपालिका के समर्थन" से इसे स्थापित करने की बात मैं करता हूँ, इसलिए सेना तथा न्यायपालिका के भी एक-एक प्रेक्षक भी इस तानाशाही में शामिल रहेंगे, जो राज-काज पर नजर रखेंगे!
      इसके अलावे, इस तानाशाही में बाकायदे एक "जन संसद" होगी, जहाँ एक ओर सभी (दुहरा दूँ- सभी!) सरकारी विभागों के प्रतिनिधि मौजूद रहेंगे, तो दूसरी तरफ आम नागरिक मौजूद रहेंगे। नागरिकों द्वारा उठाये गये मुद्दों पर सरकारी प्रतिनिधि बाकायदे जवाब देंगे और "चाणक्य सभा" जनभावना को समझकर तानाशाह को निर्देशित करेगी। "जन संसद" की कुछ ऐसी ही व्यवस्था प्रखण्ड/नगर/उपमहानगर स्तर पर भी होगी, जिसकी अध्यक्षता न्यायाधीशगण करेंगे!
      जैसा कि ऊपर मैंने कहा है कि मैं पिछले पन्द्रह वर्षों से देश की हर-एक समस्या का समाधान खोजने का काम कर रहा हूँ- मैंने इन समाधानों को एक "घोषणापत्र" के रुप में लिपिबद्ध किया है और मैं चाहूँगा कि न केवल देश की आम जनता, बल्कि स्वामी रामदेव, अन्ना हजारे, थलसेनाध्यक्ष, सर्वोच्च न्यायाधीश, मुख्य चुनाव आयुक्त, नियंत्रक-महालेखापरीक्षक, इत्यादि भी इस घोषणापत्र को देखें तथा आवश्यक संशोधन सुझायें। इसे उस भावी "दस वर्षीय तानाशाही का घोषणापत्र" समझा जा सकता है।
      मैं हवाई किला नहीं बना रहा हूँ, बल्कि अपनी जिस सोच को पिछले पन्द्रह-सोलह वर्षों से दिन-रात, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते मैं पाल-पोसकर बड़ा कर रहा हूँ, उसके लिए जमीन तैयार होने भी लगी है। आप ही देख लीजिये, अगस्त में फिर एकबार देश की जनता सड़कों पर उतरने वाली है, जिसका नेतृत्व स्वामी रामदेव तथा अन्ना हजारे मिलकर करने वाले हैं। आप इसे "भीड़ तंत्र" कहते हैं, मैं इसे भ्रष्ट, सड़ी-गली व्यवस्था के प्रति उपजा "जनाक्रोश" मानता हूँ। बस इस जनान्दोलन को सेना तथा न्यायपालिका का साथ मिलने भर की देर है। (इस आगामी जनान्दोलन को देखते हुए इस वक्त मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि 31 मई को वर्तमान सेनाध्यक्ष के अवकाशग्रहण की नौबत न आये।)
      आदरणीय सोमनाथ चैटर्जी महोदय, आप चाहे जितने बड़े राजनीतिज्ञ एवं विचारक हों, आप नेताजी सुभाष से बड़े राजनीतिज्ञ एवं विचारक नहीं हो सकते- इतना तो आप भी जानते हैं। इसलिए जब नेताजी सुभाष कहते हैं कि "ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बाद इस भारत में बीस वर्षॉं के लिए तानाशाही राज कायम होनी चाहिए", "एक तानाशाही ही देश से गद्दारों को निकाल बाहर कर सकती है" और "भारत को अपनी समस्याओं के समाधान के लिए एक कमाल पाशा की आवश्यकता है", तो उनकी बातों को हल्के में नहीं लेना चाहिए। (ध्यान रहे, आज की राजनीतिक स्थिति ब्रिटिश राज की याद दिला रही है और व्यवस्था में देश के गद्दार हावी हो गये हैं!)
      आप अब तक मेरे विचारों की धज्जियाँ उड़ाने के लिए मजमून बनाने लगे होंगे। मेरा विनम्र अनुरोध है कि ऐसा करने से पहले एकबार मेरे "घोषणापत्र" को आप शुरु से अन्त तक पढ़ने का कष्ट करें। इसमें चालीस से ज्यादा अध्याय, चार सौ से ज्यादा विन्दु हैं और प्रिण्ट करने पर साठ से ज्यादा पन्नों का यह दस्तावेज बन जायेगा, अतः इसे मैं आपको भेज नहीं सकता, बल्कि आपको इण्टरनेट पर इसे पढ़ने का कष्ट उठाना पड़ेगा। पता है- http://jaydeepmanifesto.blogspot.in/
      मुझे नहीं लगता कि इसे पूरा पढ़ने का धैर्य आप दिखा पायेंगे, मगर किसी तरह इसे आपने पूरा पढ़ लिया, तो मेरा दावा है मेरे विचारों की धज्जियाँ उड़ाना तो बहुत दूर की बात है, आप एक पंक्ति की प्रतिक्रिया भी व्यक्त नहीं करेंगे। या तो आपको मेरे विचारों से सहमत होना पड़ेगा, या फिर.... आप खुद को 'निरुत्तर' पायेंगे!  

            (पुनश्च: इस आलेख को मैं हिन्दुस्तान के सम्पादक शशी शेखर जी को भी भेज रहा हूँ। देखूँ, एक वरिष्ठ सांसद द्वारा देश की जनता से पूछे गये प्रश्नों को प्रकाशित करने वाले सम्पादक में इतनी "सम्पादकीय जिम्मेवारी" तथा "नैतिक बल" है या नहीं, जो एक आम नागरिक द्वारा दिये गये उन प्रश्नों के उत्तर को भी प्रकाशित कर सके!) 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें