शुक्रवार, 8 जून 2012

'राइट टू रीकॉल' के बहाने चुनाव-सुधारों पर चर्चा


12/3/2012

      एक साक्षात्कार में मुख्य चुनाव आयुक्त कुरैशी साहब ने कहा है कि भारतीय मतदाताओं को अपने जनप्रतिनिधियों को "वापस बुलाने का अधिकार" नहीं दिया जा सकता- क्योंकि इससे बार-बार "उपचुनाव" कराने पड़ेंगे और भविष्य में सरकार के "स्थायित्व" पर असर पड़ सकता है
      ऐसा लगता है, "उपचुनाव" तथा "अस्थिरता" का भय दिखाकर राजनेताओं की पंचवर्षीय "राजशाही" को बचाने की कोशिश की जा रही है और इसमें सब शामिल हैं- सत्तापक्ष, विपक्ष तथा चुनाव आयोग। सिर्फ जनता ही है, जो "राइट टू रीकॉल" माँग रही है।
      तो आईये, इस "राइट टू रीकॉल" के बहाने चुनाव-सुधारों पर थोड़ी चर्चा कर ली जाय। (इस चर्चा को फिलहाल "संसदीय" चुनाव तक सीमित रखते हैं।)
      पहला सवाल है- बार-बार उपचुनाव कराने पड़ गये तो? जवाब है- जब प्रतियोगिता परीक्षाओं के परिणाम के आधार पर "मेधा सूची" बन सकती है, तो चुनाव परिणामों के आधार पर "वरीयता सूची" क्यों नहीं बन सकती? चुनाव परिणाम के आधार पर पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवे स्थान पर रहने वाले उम्मीदवारों की एक वरीयता सूची बनायी जाय, जो पाँच वर्षों (या अगले चुनाव) तक वैध हो। (एक खास प्रतिशत से कम मत पानेवालों को इस सूची से बाहर भी रखा जा सकता है।) 'पहले' जनप्रतिनिधि (यहाँ 'सांसद') को जनता द्वारा वापस बुला लिये जाने की स्थिति में 'दूसरे' स्थान वाले उम्मीदवार को 'सांसद' नियुक्त कर दिया जाय। इसी प्रकार, तीसरे, चौथे और पाँचवे स्थान वाले का भी नम्बर आ जाये तो क्या हर्ज है? कम-से-कम "उपचुनाव" का खर्चा तो बचेगा और जनप्रतिनिधि (वापस बुला लिये जाने के) डर से ही सही, जनता के हित के लिए काम तो करेगा!
      दूसरा सवाल- सरकार में "अस्थिरता" पैदा हो गयी तो? क्योंकि 'दूसरे' स्थान वाला दूसरी पार्टी का तथा 'तीसरे' स्थान वाला तीसरी पार्टी का उम्मीदवार हो सकता है- इससे संसद का अंकगणित सदा बदलते रहेगा। इसका जवाब है- क्यों न प्रधानमंत्री का चयन जनता के हाथों हो और वह भी- पाँच वर्षों के लिए? इससे संसद के बदलते 'अंकगणित' का प्रभाव सरकार के स्थायित्व पर नहीं पड़ेगा। इसके लिए दो काम करने होंगे- 1. शिक्षित एवं साक्षर मतदाताओं को प्रधानमंत्री चुनने का "विशेष मताधिकार" देना होगा; और 2. ई.वी.एम. के स्थान मतपत्रों का इस्तेमाल करना होगा, जिसके एक कॉलम में लोग अपनी पसन्द के प्रधानमंत्री का नाम "लिख" सकेंगे। जाहिर है, राष्ट्रीय दल एवं राष्ट्रीय गठबन्धन संसदीय सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने के साथ-साथ प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी खड़ा करेंगे।
इस सुधार का एक "अतिरिक्त" फायदा यह होगा कि राजनीतिक दल जनता को शिक्षित एवं साक्षर बनाने में खुद ही जुट जायेंगे- अब तक तो वे जनता को अशिक्षित बनाये रखने के ही हिमायती हैं!
      अब सवाल उठाया जायेगा कि "मतपत्र" का इस्तेमाल सम्भव नहीं, क्योंकि एक-एक चुनाव क्षेत्र से दो-तीन दर्जन तक उम्मीदवार हो सकते हैं। जवाब है- क्यों न एक "लिखित परीक्षा" का आयोजन कराके (प्रत्येक चुनाव क्षेत्र से) सिर्फ छह श्रेष्ठ उम्मीदवारों का चयन किया जाय? इस नियम का अतिरिक्त फायदा भी होगा- दल गुण्डे-बदमाशों को अपने उम्मीदवार बनाने से बचेंगे। हाँ, इस परीक्षा की उत्तर-पुस्तिकाओं को जनता के सामने (या इण्टरनेनेट पर) प्रदर्शित जरूर किया जाय!
      अगर प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारों की संख्या बढ़ने की आशंका व्यक्त की जाती है, तो उसका भी जवाब हाजिर है- सिर्फ "राष्ट्रीय" स्तर के "दलों" एवं "गठबन्धनों" को "संसदीय" चुनाव लड़ने की अनुमति प्रदान की जाय, जो कम-से-कम 70 फीसदी संसदीय सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने में सक्षम हों। इस नियम का फायदा यह होगा कि संसदीय चुनाव (बेहतर है कि इसे "राष्ट्रीय" चुनाव कहा जाय) दो, तीन या बहुत हुआ तो चार "चुनाव-चिन्हों" पर लड़े जायेंगे। इससे जनता को "चुनने" में आसानी होगी तथा सरकार के "डाँवाडोल" रहने की आशंका काफी हद तक कम हो जायेगी। जरुरत पड़ी, तो प्रधानमंत्री पद के लिए भी "वरीयता सूची" बनायी जा सकती है- ताकि 70 फीसदी सांसद एकजुट होकर खराब प्रधानमंत्री को हटाकर 'दूसरे स्थान' वाले उम्मीदवार को प्रधानमंत्री नियुक्त कर सकें!  
      अब कहा जायेगा कि उपर्युक्त नियमों को लागू करने के लिए तो संविधान ही बदलना पड़ेगा! इसके जवाब में हम निम्न बातों को ध्यान में रख सकते हैं- 1. संविधान किसी ब्रह्मा ने नहीं, नागरिकों ने बनाया है और इसमें बदलाव लाने का पूरा हक नागरिकों को प्राप्त है; 2. युग के साथ मान्यतायें बदलती हैं। बेहतर है कि प्रत्येक 20 वर्ष में संविधान के पुनर्मूल्यांकन की एक प्रक्रिया हम विकसित कर ही लें। (ऐसे भी, सैकड़ों संशोधन हो चुके हैं); 3. वर्तमान संविधान का आधार 1935 का अधिनियम है, जो अँग्रेजों ने बनाय था- इस लिहाज से इसके आधार के भारतीयकरण की ही जरुरत है; 4. संविधान निर्माताओं ने चोर-बदमाश-गुण्डों-बलात्कारियों-हत्यारों के संसद में पहुँचने की कल्पना भी नहीं की होगी, अतः उन्होंने एक ऐसा आदर्श संविधान बनाया, जिसे आदर्श नेता तो अच्छे से चला सकते हैं, मगर बुरे नेता इसका दुरूपयोग ही करेंगे।
      अन्त में, मैं तो यही कहूँगा कि भारत का भावी इतिहास इस वक्त "क्रान्तिकारी" परिवर्तनों की माँग कर रहा है... इसे समय रहते समझ लिया जाय, तो बेहतर; वर्ना वास्तव में "क्रान्ति" हो जायेगी, जो वर्तमान राजनेताओं की "सेहत" के लिए अच्छा नहीं होगा!           

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