गुरुवार, 7 जून 2012

अन्ना के आन्दोलन का तीसरा दौर तथा मेरी अन्तरात्मा


29 दिसम्बर 2011 को  'जनोक्ति' में प्रकाशित 


अप्रैल में जब अन्ना का आन्दोलन शुरु हुआ था, तब ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ का मैसेज पाकर मैंने एक दिन का उपवास रखा था। 


अगस्त में उनके दूसरे दौर के अनशन के दौरान भी मैंने (सपत्नीक) उपवास रखा था। (सिर्फ एक दिन बड़ी दीदी की डाँट खाने के बाद मैंने दोपहर का भोजन किया था।) 


मगर कल जब आन्दोलन के तीसरे दौर के तहत अन्ना अनशन पर बैठे, तो मेरी अन्तरात्मा ने एक बार भी मुझे नहीं टोका- उन्हें नैतिक समर्थन देने के लिए। रात मैंने विचार किया कि ऐसा क्यों हुआ- मगर अन्दर से कोई उत्तर नहीं मिला। 


उत्तर मिला मुझे आज- जब अन्ना के मुम्बई वाले मंच की पृष्ठभूमि पर मेरा ध्यान गया। पृष्ठभूमि में गाँधीजी थे और तीन प्रतीक थे- राष्ट्रचिन्ह चक्र, ईसाई धर्म का क्रॉस तथा ईस्लाम का चाँद-सितारा। एक नजर में यह जनता का कम और काँग्रेस का मंच ज्यादा लग रहा था। 


मैं चकित रह गया… ऐसा होने वाला था, तभी तो मेरी अन्तरात्मा ने इस बार मुझे उपवास रखने के लिएप्रेरित नहीं किया! बेशक, इस पृष्ठभूमि के निर्माण में ‘टीम अन्ना’ का हाथ है- खुद अन्ना का नहीं। ऐसे में अन्ना के प्रति मेरी श्रद्धा में रत्तीभर भी कमी नहीं आ रही है; मगर ‘टीम अन्ना’ से मेरा मोहभंग होने लगा है। 


सम्भवतः बहुतों की मनोदशा मेरी-जैसी होगी। क्या साबित करना चाहती है टी अन्ना? इस बार के आन्दोलन में सिर्फ और सिर्फ ईसाइयों तथा मुसलमानों को शामिल होना था? ”राष्ट्रचिन्ह” को इन दो धार्मिक प्रतीकों के “बराबर में” रखने के पीछे क्या मंशा है?रखना था तो “राष्ट्रचिन्ह” को ऊपर रखना था और नीचे हिन्दू तथा सिक्ख धर्म के प्रतीकों को भी रखना था! नहीं तो धार्मिक चिन्हों को इस आन्दोलन में घसीटने की जरूरत ही क्या है? 


पहले तो “भारत माँ” की तस्वीर से परहेज किया, अब क्या “वन्दे मातरम्” और “भारत माता की जय” से भी परहेज का इरादा है? 


बहुत बड़े “धर्मनिरपेक्ष” बनते हैं आपलोग, तो जरा वसीयत लिखकर जाईये कि आपकी मृत्यु के बाद आपके शवों को दफना दिया जाय- ‘दाह-संस्कार’ नहीं किया जाय! नहीं लिख सकते हैं ऐसी वसीयत, तो धर्मनिरपेक्षता का नाटक बन्द कीजिये। 


कोई धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता! यह ‘अवधारणा’ ही गलत है, नकारात्मक है। सकारात्मक अवधारणा है- “सर्व धर्म समभाव” का, जो कि भारतीय अवधारणा है। 


दुर्भाग्य से, हमारे संविधान निर्मातागण अँग्रेजीदाँ थे इसलिए उनलोगों ने इस नकारात्मक पश्चिमी अवधारणा को संविधान में घुसा दिया था…और आज के अँग्रेजीदाँ अब भी इसे ढो रहे हैं।


कहीं ‘टीम अन्ना’ वाले खुद को छोड़कर देश के हर हिन्दू एवं सिक्ख को संघ का स्वयंसेवक तो नहीं समझने लगे हैं? 


कुल-मिलाकर, यह “टीम अन्ना” ही है, जो स्वामी रामदेव तथा अन्ना हजारे को संयुक्त रूप से आन्दोलन चलाने से रोक रही है। कल को जब आज का इतिहास लिखा जायेगा, तब उन्हें बेशक दोषी ठहराया जायेगा। 


देश की भलाई से जुड़े आन्दोलन में धार्मिक भावनायें घुसेड़ने की जरूरत क्या है भाई? देश की बात आने पर हर कोई “भारतीय” बन जाता है- कोई हिन्दू-मुसलमान-सिक्ख-ईसाई नहीं रह जाता। फिर दो खास धार्मिक चिन्हों के प्रति आसक्ति क्यों??? 


या तो जवाब दीजिये, या माफी माँगिये!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें