8 अप्रैल 2012
जब मैं दस वर्षों के लिए सभी माननीयों को छुट्टी पर भेजते हुए
एक "चाणक्य सभा" के दिशा-निर्देशन में दस वर्षों की एक
"चन्द्रगुप्तशाही" कायम करने की अपनी विचारधारा प्रस्तुत करता हूँ, तो बहुतों को अटपटा लगता है कि इस
देश में भला "चौदह व्यक्तियों" के मार्गदर्शन में "एक
व्यक्ति" के शासन (दस वर्षों के लिए ही सही) की बात कैसे सोची जा सकती है?
यहाँ तो दुनिया का सबसे बड़ा "लोकतंत्र" कायम है, जिसकी जड़ें भी बहुत
गहरी हैं!
ऐसे साथियों के लिए मैं कुछ विचारणीय विन्दु प्रस्तुत
करता हूँ- कृपया गहराई से इन पर विचार-मन्थन करें:
मान लीजिये कि हमारी संसद में 500 सांसद हैं, तो क्या
सभी "500 सांसद" मिलजुल कर देश के लिए नीतियाँ बनाते हैं? जवाब होगा-
नहीं। नीतियाँ सिर्फ "सत्ता पक्ष" बनाता है (विपक्ष आमतौर पर इन नीतियों
के खिलाफ "बहिर्गमन" करता है, या "शोरगुल" करता है और
सभाध्यक्ष इसी बीच विधेयक को "पारित" घोषित कर देते हैं!)। अर्थात् 500
में से लगभग 250 सांसदों की कोई भूमिका नहीं होती है- देश के लिए नीतियाँ बनाने
में।
दूसरा सवाल- क्या सत्ता-पक्ष के सभी "250 सांसद"
मिलकर नीतियाँ बनाते हैं? यहाँ भी जवाब है- नहीं। नीतियाँ "कैबिनेट"
बनाती है, यानि मंत्रीमण्डल। अर्थात् यहाँ सत्ता-पक्ष के भी लगभग 200 सांसद बाहर
हो गये- लगभग "50 सांसद" तय करते हैं कि देश किस नीति पर चलेगा।
तीसरा सवाल- क्या कैबिनेट के सभी "50
सांसदों" की भूमिका होती है नीति-निर्धारण में? हो सकता है, कुछ साथी 'हाँ'
में उत्तर दें। पर मैं ऐसा नहीं मानता। मेरे अनुसार मंत्रीमण्डल में प्रायः आधा
दर्जन मंत्री अत्यन्त शक्तिशाली होते हैं, जिनकी चलती है, बाकी सहमति जताने भर के
लिए बैठकों में शामिल होते हैं। अर्थात् यहाँ 50 में से 44 बाहर हो गये- लगभग
"6 सांसद" देश की नियति तय करते हैं।
चौथा सवाल- क्या ये "6 सांसद" वाकई इतने
शक्तिशाली होते हैं कि किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपनी अलग राय पर कायम रह सकें?
जवाब होगा- नहीं। हर हाल में ये किसी "1 सांसद" की इच्छा के सामने
नतमस्तक रहने के लिए बाध्य होते हैं। अब वह प्रभावशाली "1 सांसद"
प्रधानमंत्री हो सकता है, पार्टी-अध्यक्ष हो सकता है, या फिर, हो सकता है कि दोनों
ही पद उसी के पास हों।
अब बताईये कि क्या निष्कर्ष निकला? क्या हमारे देश
में "1 व्यक्ति" का शासन पहले से ही कायम नहीं है?
चूँकि वे "कम्बल ओढ़कर" तानाशाही चला रहे हैं,
इसलिए वे सही हैं, और मैं खुलकर दस वर्षों की तानाशाही (मैंने इसे
"चन्द्रगुप्तशाही" का नाम दिया है, क्योंकि यह "चाणक्य सभा"
के मार्गदर्शन में शासन करेगा) की बात कर रहा हूँ तो मैं बुरा हो गया? जबकि मेरी
तानाशाही का उद्देश्य एक आदर्श "लोकतंत्र" की स्थापना ही है- कुछ और
नहीं!
***
एक दूसरी शंका जाहिर की गयी है- क्या "चाणक्य
सभा" वाकई चाणक्य की भूमिका निभा पायेगी? इस सभा के लिए "दूध के
धुले" लोग कहाँ मिलेंगे? इसके सदस्यों को अपना 'उत्तराधिकारी' एवं 'सहयोगी'
चुनने देने के पीछे क्या तुक है?
यहाँ मैं यह जानकारी देना चाहूँगा कि 1998 में जब मैंने
"चाणक्य सभा" की अवधारणा सोची थी, तब मैंने इसके 14 सदस्यों
की बाकायदे सूची भी बनायी थी, जो निम्न प्रकार से है-
1. श्री प्रभाष जोशी (पत्रकार),
2. बाबा आम्टे (समाजसेवी),
3. श्री सुन्दरलाल बहुगुणा (पर्यावरणविद्),
4. डॉ. अरूण घोष (अर्थशास्त्री),
5. डॉ. सुभाष कश्यप (संविधानविद्),
6. जेनरल (अवकाशप्राप्त) वी .एन. शर्मा (रक्षा विशेषज्ञ),
7. श्री ए.पी. वेंकटेश्वरन (विदेश नीति विशेषज्ञ),
8. सुश्री मधु किश्वर महिलानेत्री),
9. प्रो. यशपाल (शिक्षाविद्),
10. श्री गिरीश कर्नाड (संस्कृतिकर्मी),
11. श्री मिल्खा सिंह (खिलाड़ी),
12. डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम (वैज्ञानिक),
13. प्रो. नंजुदास्वामी (किसान नेता) और
14. श्री दत्तोपन्त ठेंगड़ी (मजदूर नेता)।
आज की तारीख में प्रभाष जोशी, बाबा आम्टे, डॉ. अरूण घोष और दत्तोपन्त ठेंगड़ी हमारे बीच नहीं रहे। (इस स्थिति को भाँपकर ही मैंने
लिखा था कि "चाणक्य" अपने 'उत्तराधिकारी' चुनने के लिए स्वतंत्र होंगे।
अब इनके स्थान पर हमें ही दूसरे नामों पर विचार करना होगा। देखिये कि वरिष्ठ
पत्रकार का नाम तय करना कितना मुश्किल हो गया है- आज ज्यादातर वरिष्ठ पत्रकार
किसी-न-किसी राजनीतिक दल के वेतनभोगी कर्मचारी-जैसा व्यवहार करते हैं!) कलाम साहब इस
बीच राष्ट्रपति भी बन गये। ए.पी. वेंकटेश्वरन, जेन. वी.एन. शर्मा,
नंजुदास्वामी का कोई साक्षात्कार या उनका कोई आलेख वर्षों से मैंने नहीं पढ़ा है-
मीडिया ने भुला दिया है उन्हें।
खैर, मुझे ऐसा नहीं लगता कि इस सूची में कोई नाम ऐसा
है, जिसपर उँगली उठायी जा सके। वैसे, इस मामले में आपके सुझाव भी मैं जानना
चाहूँगा।
ईति।
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