3/6/2012
13 दिसम्बर '11 को मैंने अपने एक आलेख "यह इतिहास को दुहराने का वक्तहै" में लिखा था कि जिस प्रकार (1942 में) नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और
रासबिहारी बोस देश की आजादी के लिए एक-दूसरे के सिपाही बनने के लिए तैयार हो गये
थे, उसी प्रकार आज देश को भ्रष्टाचार एवं कालेधन से मुक्त करने के लिए स्वामी
रामदेव एवं अन्ना हजारे को एक मंच पर आ जाना चाहिए। खुशी की बात है कि आज (3 जून '12) के आन्दोलन में
दोनों जननेता साथ हैं।
फिर 27
मार्च '12 को मैंने एक दूसरे आलेख "एक पत्र अन्ना के नाम" में लिखा था कि चूँकि "याचना" के स्थान पर
"रण" की नीति अपना ली गयी है, अतः अगले आन्दोलन की शुरुआत गाँधीजी के
आशीर्वाद से नहीं, बल्कि नेताजी सुभाष या भगत सिंह के आशीर्वाद से होनी चाहिए।
खुशी की बात है कि आज के आन्दोलन की शुरुआत स्वामी रामदेव ने 'टिकरी कलां' से की,
जहाँ (देश छोड़ने से पहले) नेताजी ने अपना अन्तिम भाषण दिया था। मगर मुझे इसमें दो
खटके नजर आये- 1. यहाँ से स्वामी रामदेव "राजघाट" जरुर गये, और 2. अन्ना
हजारे यहाँ नहीं दीखे। यानि नेताजी के "रास्ते" को स्वामी रामदेव
"आधा" सही मानते हैं और अन्ना हजारे "पूरा" गलत! मेरा आकलन
कहता है कि ऐसी अस्पष्ट, डाँवाडोल एवं संशय वाली नीति पर चलकर न कोई जंग जीती जा
सकती है, और न ही किसी आन्दोलन को सफल बनाया जा सकता है! "हक" व
"भीख" दोनों की बात आप साथ-साथ नहीं कर सकते! "रण" व "याचना"
दोनों नावों पर एक साथ सवारी करने का अंजाम आप समझ ही सकते हैं!
***
खैर,
सुना कि आज ही 2014 के आम चुनाव के मद्दे-नजर रणनीति भी बनायी जायेगी। यह ज्यादा
महत्वपूर्ण खबर है- कम-से-कम मेरे लिए।
जिन
दो ऐतिहासिक तथ्यों पर लोगों का ध्यान कम जाता है, वे हैं- 1. 1947 में गाँधीजी
द्वारा सत्ता सम्भालने से इन्कार करना और 2. 1975 में जयप्रकाश नारायण द्वारा
सत्ता सम्भालने से इन्कार करना। (यहाँ उम्र मायने नहीं रखता- आप
"उप"प्रधानमंत्री या "कार्यकारी" प्रधानमंत्री नियुक्त करके
भी सत्ता सम्भाल सकते थे!)
आज
इतिहास अपने को "तिहरा" रहा है- जब स्वामी रामदेव और अन्ना हजारे दोनों
ने सत्ता की बागडोर थामने से साफ इन्कार कर दिया है। इसीलिए मेरी दिलचस्पी ज्यादा
है कि देखें "मिशन 2014" के लिए वे क्या रणनीति बनाते हैं!
जाहिर
है, अगर वे काँग्रेस के स्थान पर भाजपा को चुनने की बात करते हैं, तो जनता उन्हें
नकार देगी। क्योंकि यह "नागनाथ" के स्थान पर "साँपनाथ" को
चुनने वाली बात होगी। मुझे तो आशंका है कि "आर्थिक" नीतियों पर भाजपा
काँग्रेस से ज्यादा खतरनाक साबित हो सकती है। भूमण्डलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण को
वह ज्यादा आक्रामक रुप से अपना सकती है। इसी प्रकार विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय
मुद्रा कोष तथा अमेरीका की नीतियों को वह ज्यादा जोर-शोर से लागू कर सकती है। इनके
फलस्वरुप देश में गरीबी-अमीरी की खाई और ज्यादा चौड़ी हो जायेगी, जो देश में
गृहयुद्ध की स्थिति पैदा करेगी, और कुछ नहीं!
अगर
वे चुनाव में "अच्छे" उम्मीदवारों को चुनने की सलाह लोगों को देते हैं,
तो सब जानते हैं कि वर्तमान व्यवस्था के अन्तर्गत अच्छे लोग उम्मीदवार बनते ही
नहीं हैं। यह सलाह बेकार साबित होगी- एक "बला टालने" वाली सलाह!
हाँ,
अगर वे खुद उम्मीदवार खड़े करने की नीति अपनाते हैं, तो यह एक कारगर उपाय हो सकता
है- व्यवस्था परिवर्तन का। यहाँ मुझे सिर्फ दो सन्देह हैं, जो गलत भी साबित हो
सकते हैं- 1. चूँकि आम जनता आज भी जात-पाँत आदि देखकर वोट देती है, अतः उससे हम
ज्यादा उम्मीद नहीं रख सकते; 2. ई.वी.एम. मशीनों पर- व्यक्तिगत रुप से- मैं भरोसा
नहीं करता। अगर मेरी आशंकायें सही साबित हुईं, तो रामदेव-अन्ना के पार्टी को बहुमत
नहीं मिलेगा और व्यवस्था-परिवर्तन एक सपना ही रह जायेगा!
***
अन्त
में, ज्यादा विस्तार में न जाते हुए मैं स्वामी रामदेव, अन्ना हजारे और उनके
समर्थकों को नेताजी सुभाष का एक कथन याद दिलाना चाहूँगा और अनुरोध करूँगा कि वे
ध्यान लगाकर, दिमाग ठण्डा रखकर और पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर विचार करें कि
नेताजी ने ऐसा कहा था तो क्यों कहा था; और क्या उनका यह कथन आज की तारीख में कुछ
ज्यादा ही प्रासंगिक नहीं हो गया है?-
“ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बाद इस भारत
में पहले बीस वर्ष के लिये तानाशाही राज्य कायम होनी चाहिये। एक तानाशाह ही देश से गद्दारों को
निकाल सकता है।"
"भारत को अपनी समस्याओं के समाधान के लिये एक कमाल पाशा की आवश्यकता है।”
मैं तो इस कथन में ही भारत का पुनरुत्थान देखता हूँ और
दस वर्षों की तानाशाही के लिए मैंने बाकायदे एक "घोषणापत्र" भी तैयार कर रखा है- यह तो आप जानते ही हैं!
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