ढाई हजार साल पहले ही गौतम बुद्ध ने बता दिया था कि हमारी
आवश्यकतायें अनन्त हैं और उन्हें पूरा करने के साधन सीमीत। इन "सीमीत साधनों" से जब हम अपनी
"अनन्त आवश्यकताओं" को पूरा नहीं कर पाते, तब हम दुःखी होते हैं।
यह एक
ध्रुव सत्य है। इसके अनुसार, अगर हमें सुखी रहना है, तो हमें दो में से एक रास्ते
पर चलना होगा- पहला, अपनी आवश्यकताओं को हम उपलब्ध साधनों / संसाधनों के
अनुरुप सीमीत कर लें / ढाल लें; और दूसरा, अपनी आवश्यकताओं के अनुसार
साधनों / संसाधनों की मात्रा बढायें।
18वीं सदी
की औद्योगिक क्रान्ति से पहले मानव समाज कमोबेश पहले रास्ते पर चलता था-
पर्यावरण के अनुसार खुद को ढालते हुए और प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकतानुसार दोहन
करते हुए। मानव तब सुखी था- यह दावा हालाँकि फिर भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि
मानव द्वारा मानव का शोषण काफी पहले से इस सभ्यता में मौजूद है।
औद्योगिक
क्रान्ति के बाद मानव ने दूसरे रास्ते पर चलना शुरु किया। "शोषण"
के साथ-साथ "दोहन" की बुराई मानव-समाज में प्रवेश कर गयी-
प्राकृतिक संसाधनों को निचोड़ डालने की प्रवृत्ति! संसाधन बढ़ाओ, ताकि हमारी हर
आवश्यकता पूरी हो सके! यह भूख, यह हवस, यह पागलपन आज भी लगातार बढ़ता जा रहा है! यही
हवस "भ्रष्टाचार" एवं "अमीरी" को भी जन्म दे रहा है, जिनसे
सारी दुनिया के लोग त्रस्त हैं।
तीसरी और (सम्भवतः)
आखिरी बुराई जुड़ी 20वीं सदी की वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्रान्ति के बाद- "उपभोगवाद"!
यह "उपभोगवाद" विशुद्ध रुप से उन पश्चिमी या पाश्चात्य देशों के ज्ञान
से पैदा हुआ, जहाँ उपनिवेशों से लूटकर लाये गये धन तथा गुलाम बनायी गयी मानव-शक्ति
के बल पर औद्योगिक क्रान्ति या तरक्की हुई थी। "लूट" एवं
"शोषण" की नींव पर "आधुनिक" हुई सभ्यता से और किस प्रकार के
"ज्ञान" की उम्मीद रख सकते हैं हम?
("भोग"
व "उपभोग" में वही अन्तर समझें, जो "पत्नी" एवं
"उपपत्नी" में हो सकता है- ज्यादा दार्शनिकता में जाने की जरुरत क्या
है?)
***
अभी परसों
ही (7/6/12) दैनिक 'प्रभात खबर' में वरिष्ठ समाजवादी चिन्तक सच्चिदानन्द सिन्हा का
साक्षात्कार देखा, जिसमें वे स्पष्ट घोषणा कर रहे हैं कि-
"...एक-दो
सौ सालों में विशाल नगरीय व्यवस्थायें ऊर्जा एवं पर्यावरण संकट की वजह से खत्म हो
जायेंगी। आवागमन की व्यवस्था भी ध्वस्त हो जायेगी। ये चीन की दीवार और मिश्र के
पिरामिड की तरह खण्डहर बनकर नुमाइश की चीजें बन जायेंगी।"
उनके
अनुसार-
"...जिस
तरह से औद्योगिक विकास हो रहा है, उससे अब किसी परमाणु युद्ध की जरुरत नहीं है।
औद्योगीकरण ही विश्व को बर्बाद करने के लिए काफी है। पर्यावरण की जो स्थिति बन रही
है, उससे कहीं-न-कहीं हमलोग उस स्थिति की ओर बढ़ते जा रहे हैं।"
यानि शोषण,
दोहन और उपभोगवाद पर आधारित महानगरीय व्यवस्था का विनाश हो जायेगा। फिर क्या होगा?
क्या समता, पर्यावरण-मित्र और उपयोगवाद पर आधारित एक नयी व्यवस्था का जन्म होगा?
("उपयोगवाद"
व "उपभोगवाद" का अन्तर नाम से समझ लें।)
भगत
सिंह भी क्या ऐसा ही नहीं सोचते थे-
"विनाश,
रचना के लिए न केवल आवश्यक है, बल्कि अनिवार्य भी है!"
अगर एक नयी
व्यवस्था का जन्म होना ही है, तो वह भारत से ही क्यों न हो? क्या भारत से उपयुक्त
कोई और देश दुनिया में है, जो साधनों के अनुरुप अपनी आवश्यकताओं को सीमीत करके जीने
की शैली का उदाहरण प्रस्तुत कर सके?
दूसरी
बात- वर्तमान व्यवस्था के पतन की राह तकते हुए दो सौ साल तक इन्तजार क्यों किया
जाय? दो साल के अन्दर नयी व्यवस्था की नींव क्यों न रख दी जाय?
दुर्भाग्य
यह है कि जिन्हें नयी व्यवस्था की नींव रखनी है, वे ही आठ प्रतिशत और सोलह प्रतिशत
का "विकास" दर हासिल करने के लिए उदारीकरण, भूमण्डलीकरण और निजीकरण की
अन्धी गलियों में दौड़ लगा रहे हैं!
तो अब
रास्ता क्या बचा?
वर्षों
पहले (30 जुलाई 1998 को) 'जनसत्ता' में वयोवृद्ध अर्थशास्त्री डा. अरुण घोष का साक्षात्कार
पढ़ने का मौका मिला था। इस सवाल के जवाब में कि देश का भविष्य वे कैसा देखते हैं, उनका
कहना था-
“मैं तो केवल सर्वनाश देख सकता हूँ। भविष्य में क्या
होगा, इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता। पर समाज विचलित
हो रहा है। जनता की नाराजगी बढ़ रही है। मेरा मानना है
कि संसद वर्तमान स्थिति को रोकने की हालत में नहीं है। सभी पार्टियाँ
इन नीतियों (उदारीकरण) की समर्थक हैं, और सांसदों में सड़क पर आने का दम नहीं है।
“मुझे तो लगता है कि एक लाख लोग अगर संसद को घेर लें, तो शायद कुछ
हो।”
इतना एक्ट्रीम व्यू भी लेने की ज़रूरत नहीं है. बहुत से बदलाव समय समय पर आते हैं स्वत: (वर्ड वेरिफ़िकेशन की अगर ज़रूरत नही है तो कृपया हटा दें)
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