शुक्रवार, 8 जून 2012

श्रीलंका पर हमारी नीति


23/3/2012

      हालाँकि मीडिया में इस विषय पर कुछ दिखाया-सुनाया या लिखा नहीं गया, मगर इतना है कि संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद देते हुए प्रधानमंत्री ने यह जानकारी दी थी कि संयुक्त राष्ट्र संघ में श्रीलंका के खिलाफ अमेरिका द्वारा लाये गये प्रस्ताव के समर्थन में भारत अपना मत देने जा रहा है। विरोधी दलों को भी इसपर आपत्ति नहीं थी और यू,एन,ओ, में भारत ने ऐसा ही किया।
      जब इतने बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों एवं कूटनीतिज्ञों का यह फैसला है, तो यह ठीक भी हो सकता है। हम-जैसे आम लोगों की बातों पर भला कौन ध्यान देगा? फिर भी, मुझे लगता है- कोई चूक हो गयी है और देर-सबेर इसका खामियाजा हमें उठाना पड़ेगा।
      ध्यान से सोचिये- अगर भारत को लगता है कि श्रीलंका में रह रहे तमिलों के साथ अन्याय हो रहा है, तो भारत को श्रीलंका से बातचीत करनी चाहिए थी। यह बातचीत द्विपक्षीय या त्रिपक्षीय हो सकती थी, यानि वार्ता की मेज पर श्रीलंकाई तमिलों को भी बुलाया जा सकता था। अगर तमिलों को बुलाने से श्रीलंका मना करता, तो भारत को अपनी ओर से श्रीलंकाई तमिलों के हित से जुड़े पाँच-सात या आठ-दस विन्दुओं वाला एक प्रस्ताव श्रीलंका के सामने रखना चाहिए था। कई दौर की वार्ताओं के बाद भी अगर श्रीलंका हठधर्मिता दिखाता, तब जाकर श्रीलंका के खिलाफ यू.एन.ओ. में लाये गये किसी प्रस्ताव को समर्थन देना भारत को शोभता। जहाँ तक मेरी जानकारी है- ऐसा कुछ नहीं हुआ है! भारत ने कभी सपने में भी श्रीलंकाई तमिलों के हित की बात नहीं सोची होगी- श्रीलंका से इस मुद्दे पर बातचीत करना तो बहुत दूर की बात है।
      बहुत सीधी-सी बात है- बिना सोच-विचार किये डी.एम.के. के 'अन्तर्देशीय' दवाब तथा अमेरिका के 'अन्तर्राष्ट्रीय' दवाब में यह फैसला लिया गया है। इसके परिणामस्वरुप श्रीलंका के मन में भारत के प्रति दुर्भावना पैदा हो सकती है। वह कह सकता है- अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर हमारे खिलाफ जाने से पहले एकबार हमसे खुलकर बात तो कर लिया होता आपने... आखिर कितने दूर हैं हम आपसे? यह दुर्भावना अगर गहरी हो गयी, तो चीन इसका नाजायज फायदा उठायेगा- यह बात शीशे की तरह साफ है।
      डी.एम.के. का क्या है- वह तो कूपमण्डूक किस्म का राजनीतिक दल है। उसे तमिलों का 'वोट बैंक' बनाना है, इसलिए वह श्रीलंकाई तमिलों का पत्ता खेल रहा है। वास्तव में, श्रीलंकाई तमिलों के हित से उसे कुछ भी लेना-देना नहीं है।
      रहा अमेरिका। उसे पता है कि भारत अगर शक्तिशाली बनता है, तो सिंहासन उसी का डोलेगा। इसलिए हर कदम पर वह भारत को गलत फैसले लेने के लिए मजबूर करेगा- ताकि विश्व तो क्या, दक्षिण एशिया में भी भारत लोकप्रिय न हो सके। और हम हैं कि इस धूर्त देश की कुटिल चाल में हर बार फँस जाते हैं।  
      कुल-मिलाकर, देश की 'विदेश नीति' पर मेरी व्यक्तिगत राय यही बनती है कि इसकी "दूर की नजर" तो जबर्दस्त है- अमेरिका-यूरोप में क्या हो रहा है, सब इसे दीखता है; मगर इसकी "नजदीक की नजर" कमजोर है- पड़ोस में क्या हो रहा है, इसकी खबर इसे नहीं होती, या ज्यादा सटीक शब्दों में कहा जाय तो पड़ोसी देशों के प्रति यह 'हिकारत' का भाव रखती है, जिसका खामियाजा शायद जल्द ही हमें भुगतना पड़ जाय.... 

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