3 फरवरी 2012 को लिखा गया
कुछ बातें कभी बोली नहीं
जाती, लिखी नहीं जाती, मगर समझ ली जाती हैं। सोनिया जी ने कभी कहा तो नहीं (लिखना तो खैर, दूर की बात है),
मगर लोगों ने यह समझ लिया था कि वे मनमोहन जी को प्रधानमंत्री क्यों नियुक्त कर
रहीं हैं।
प्रधानमंत्री बनने के बाद मनमोहन जी ने
"आर्थिक सुधारों को "मानवीय चेहरा" देने" की बात कहकर काफी
वाह-वाही बटोरी थी। लगा था- जरूर इनके दिमाग में देश को तरक्की की राह पर ले जाने
के लिए कोई "दृष्टि", कोई "विजन" है। मगर जल्दी ही यह भ्रम
टूट गया। पता चला- सरकार चलाने में सहयोग दे रहे वामपन्थियों को बस सहलाने भर के
लिए उन्होंने ऐसा बयान दिया था।
जिस अघोषित उद्देश्य के लिए उन्हें यह
कुर्सी सौंपी गयी थी, उस उद्देश्य को पूरा करने के अलावे उन्हें किसी बात, किसी
चीज से कोई मतलब नहीं रह गया है- ऐसा स्पष्ट होने लगा है।
मुझे अपनी एक कविता याद आ रही है-
"अपने सीने को जमीन पर घसीटकर रेंगने वाला सर्प / आघात पाते ही सीना तानकर
फुँफकार उठा / और मरने-मारने को तैयार हो गया / ।।। मगर सीना तानकर चलने वाले हम /
रौंदे जाने के बाद भी / चुप रहे!"
इतना सब कुछ एक-के-बाद-एक घटते जा रहा है,
मगर मनमोहन जी की अन्तरात्मा जागने का नाम ही नहीं ले रही! आश्चर्य होता है- ऐसा
सम्भव कैसे हो रहा है?
क्या वाकई वे नोस्त्रादमूस द्वारा वर्णित
"नीली पगड़ी वाला राजा" हैं, जो तीन तरफ पानी से घिरे देश पर राज करने
वाला था, जो शुरू में तो प्रसिद्ध, मगर बाद के दिनों में बहुत बदनाम होने वाला था।।।?
अगर ऐसा ही तो
है, तो आशा की जाय कि इनका राज समाप्त होने के बाद इस देश में एक ऐसा राजा आयेगा,
जो इस देश के झण्डे को दूर-दूर तक लहरायेगा।।।
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