शुक्रवार, 8 जून 2012

बलात्कार: सजा एवं न्यायिक प्रक्रिया


20/2/2012
बलात्कार की सजा
      बलात्कारी को कठोर सजा देने की वकालत करते हुए एक महिला न्यायाधीश ने यह प्रश्न उठाया है कि क्यों न बलात्कारी को नपुँसक बना दिया जाय? (इस तरह के प्रश्न पहले भी उठाये जाते रहे हैं, मगर अफसोस कि 'जन-जागृति' नहीं फैलती, जिसके चलते ऐसे कानून नहीं बन पाते।)
      मैं इस विचार का समर्थन करता हूँ। देश की महिलायें इसका समर्थ करेंगी। जानता हूँ- ज्यादातर पुरूष भी समर्थन करेंगे। मगर कुछ चवन्नी छाप दाढ़ी रखने वाले, कुछ मातृभाषा बोलने में लज्जा महसूस करने वाले, कुछ बारहों महीने टाई बाँधने वाले (इस ग्रीष्मप्रधान देश में भी!), कुछ खुद को इलीट कहलाना पसन्द करने वाले, टी.वी. चैनलों पर इस तरह की सख्त सजा के खिलाफ कमर कसकर मोर्चा खोल देंगे- यह भी मैं जानता हूँ।
      मैं तो इससे भी एक कदम आगे बढ़ते हुए कहना चाहूँगा कि बलात्कारी को जेल में रखकर उसे नियमित रुप से "स्त्री हार्मोन" के इंजेक्शन दिये जाने चाहिए; और जब उसका पूरी तरह "लिंग-परिवर्तन" हो जाये, तब उसे एक नयी पहचान के साथ रिहा कर देना चाहिए। "नारी" की इस नयी पहचान के साथ अब वह समाज में जीना चाहे या न चाहे- यह उसकी मर्जी।
      कुछ कहेंगे- यह तो प्रकृति के खिलाफ जाने वाली बात हो गयी। मैं कहूँगा- बलात्कार, समाज का जघन्यतम अपराध है, इसके खात्मे के लिए कुछ कदम प्रकृति के खिलाफ भी उठाने पड़े, तो कोई हर्ज नहीं!
      एक महत्वपूर्ण बात और है- अदालत में बलात्कारी का बचाव करने वाले तथा पीड़िता को बदचलन बताने वाले या उसे सहमत बताने वाले वकीलों का क्या? उनके खिलाफ तो कानूनन कुछ किया नहीं जा सकता। फिर? क्या उनका "सामाजिक बहिष्कार" न किया जाय??

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21/2/2012
बलात्कार आदि मामलों के लिए न्यायिक प्रक्रिया: एक सुझाव
     कल बलात्कार की सजा के रुप में बलात्कारी को "नपुँसक" बनाये जाने, या उसका "लिंग-परिवर्तन" किये जाने पर बात हुई थी। आज बलात्कार तथा यौन-उत्पीड़न-जैसे मामलों की सुनवाई कैसे होनी चाहिए इस पर कुछ सुझाव प्रस्तुत है-
      1. ऐसे मामलों को "बन्द अदालतों" में चलाया जाना चाहिए। हालाँकि हमारा मीडिया शालीनता बरतते हुए "नाम बदलकर" ही समाचार देता है और चित्रों में चेहरे को धुँधला बनाकर दिखाता है; फिर भी, "खुली अदालतों" में इन मामलों का चलना अशोभनीय है।
      2. इन मामलों में (12 सदस्यीय) "ज्यूरी" का होना "अनिवार्य" किया जाना चाहिए और ज्यूरी के मत को ध्यान में रखते हुए न्यायाधीश को निर्णय देना चाहिए। ज्यूरी में अनुभवी सामाजिक कार्यकर्ता, मनोविज्ञानी, पुलिस अधिकारी, वकील, डॉक्टर तथा पत्रकार के रूप में छह महिला और छह पुरूष सदस्य होने चाहिए।
      3. अदालत में पीड़िता स्त्री द्वारा एक बार अपराध में अपनी "असहमति" या अपने समर्पण को किसी किस्म की "मजबूरी" बताये जाने के बाद इसे ग़लत साबित करने के लिए बहस या जिरह बिलकुल नहीं होनी चाहिए।
      4. बहस या जिरह क्यों नहीं होनी चाहिए- इसका जवाब यह है कि एक पुरूष को "अपनी पत्नी" या "नगरवधू" (Commercial Sex Workers) के अलावे किसी और के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने (या ऐसी कोशिश करने) का अधिकार ही नहीं है! अगर कोई ऐसा करता है, तो वह "दण्ड का भागी" है। स्त्री पहले सहमत होकर बाद में अदालत में अगर अपनी असहमति दर्ज कराती है, तो भी पुरूष को दण्ड मिलना चाहिए!
      5. अगर स्त्री अपनी सहमति की बात स्वीकार करती है- जैसा कि "लिव-इन" रिश्तों में हो सकता है- तो फिर यह "अनैतिकता" का मामला बन जाता है और जब तक कोई "तीसरा पक्ष" शिकायत दर्ज न कराये, अदालतों को इन मामलों को नजरअन्दाज करना चाहिए। कहने का तात्पर्य, दो बालिगों के सहमतिपूर्ण सम्बन्धों पर भी अगर किसी तीसरे पक्ष को आपत्ति है, तो उसे शिकायत दर्ज कराने का अधिकार होना चाहिए; अदालतों को भी इन "अनैतिक" मामलों की सुनवाई करनी चाहिए तथा आरोपितों को जरूरी सुझाव (जैसे विवाह) या चेतावनी देनी चाहिए; कुछ मामलों में जुर्माने तथा कुछ में दोनों को कारावास तक की सजा देने की जरुरत महसूस की जा सकती है। 

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