8 फरवरी को लिखा गया
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री
युसूफ रज़ा गिलानी ने कहा कि उनका देश काश्मीरी अवाम को नैतिक, राजनीतिक एवं
कूटनीतिक समर्थन देता रहेगा; मगर इस 21वीं सदी में भारत के साथ एक और युद्ध वह
नहीं चाहता।
चूँकि इससे पहले पाक राष्ट्राध्यक्षगण
एक-से-बढ़कर-एक भड़काऊ बयान देते थे, इसलिए गिलानी साहब के इस बयान का स्वागत तो
करना ही पड़ेगा; क्योंकि यह सुलझा हुआ तथा संयत बयान है।
मगर इससे हम भारतीयों को बहुत आह्लादित नहीं
होना चाहिए। क्योंकि अब पाकिस्तान भारत के साथ "अप्रत्यक्ष" युद्ध लड़ने
में अपना दिमाग, अपनी शक्ति तथा अपने संसाधन लगा रहा है। "जाली भारतीय
नोट" इस युद्ध का सबसे बड़ा हथियार है। इसे सिर्फ डी-कम्पनी की करतूत कहकर
खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि पाकिस्तान सरकार बाकायदे इन नोटों के लिए कागज आयात
कर दाऊद कम्पनी को देती है! इसके अलावे, "आतंकवाद" और "नशीले
पदार्थ" के रुप में दो और हथियारों का इस्तेमाल पाकिस्तान कर रहा है। यह छुपा
युद्ध भारत को कहीं ज्यादा नुक्सान पहुँचा रहा है- ऐसे में, भारत के साथ
"प्रत्यक्ष" युद्ध लड़ने की अब उसे जरूरत भी क्या है?
व्यक्तिगत रुप से मैं भी मानता हूँ कि अब
"युद्ध" नहीं, "राजनीति" एवं "कूटनीति" होनी चाहिए,
मगर ऐसा मानने के पीछे मेरा तर्क कुछ और है।
मेरे तर्क के अनुसार, भारत ने काश्मीर के
भू-भाग "सैन्य कमजोरियों" के कारण नहीं खोये हैं, बल्कि "राजनीतिक"
एवं "कूटनीतिक" कमजोरियों के कारण खोये हैं; अतः इन्हें फिर से हासिल
करने के जिम्मेवारी भी हमारे राजनीतिज्ञों एवं कूटनीतिज्ञों पर ही आती है- सैनिकों
पर नहीं!
जरा पलटिये इतिहास के इन पन्नों को:
1. 1947 में भारतीय सेना जीत रही थी। उसे आगे बढ़ने देना था।
भारतीय क्षेत्र से पाकिस्तानी सेना से बाहर करने के बाद ही युद्ध विराम होना चाहिए
था, मगर नेहरू जी (सबकी सलाह को दरकिनार करते हुए) जबर्दस्ती इस मामले को यू।एन।ओ।
में ले गये और काश्मीर में एक 'सीजफायर लाईन' बन गयी।
2. भारतीय सेना की मदद माँगते हुए हरि सिंह नलवा ने "बिना
शर्त" भारत में काश्मीर के विलय को स्वीकार कर लिया था, मगर नेहरूजी ने अपनी
ओर से इसमें "जनमत संग्रह" का पेंच फँसाया। यह पेंच अब जी का जंजाल बन
गया है। क्योंकि अब वहाँ से काश्मीरी पण्डितों को भगा दिया गया है। (नेहरूजी सम्भवतः
"महानता-मैनिया" से ग्रस्त थे!)
3. 1962 में सैन्य विशेषज्ञों ने चीनी आक्रमण की चेतावनी दे दी
थी, मगर नेहरू जी "भाई-भाई" का राग अलापते रहे और काश्मीर पर चीन के
अधिकार को उन्होंने यह कहकर जायज ठहराया था कि यह "बंजर" इलाका है- यहाँ
कुछ नहीं उगता।
4. 1965 में भारतीय सेना लाहौर तक को कब्जा चुकी थी। बेशक,
वार्ता की मेज पर कहा जा सकता था कि "पहले काश्मीर छोड़ो, तब हम लाहौर
छोड़ेंगे"! क्या पता, ताशकन्द में शास्त्री जी ने ऐसा कहा भी हो! मगर रहस्यमयी
परिस्थितियों में एक "फिस्स" किस्म का समझौता हुआ और रातों-रात
शास्त्रीजी का "देहान्त" हो गया! (इसके पीछे षड्यंत्र की बू आती है,
क्य़ोंकि इसके तुरन्त बाद इन्दिरा जी ने प्रधानमंत्री बनकर "समाजवादी"
किस्म की नीतियों को ताबड़तोड़ ढंग से देश में लागू कर दिया था! क्या सोवियत-इन्दिरा
के बीच कोई गुप्त समझौता हुआ था, जिसके तहत शास्त्रीजी को रास्ते से हटाया गया?)
5. 1971 में भी भारत "विजयी" देश था, मगर यहाँ भी
शिमला समझौते की मेज पर पाकिस्तान जीत गया। उसने समझौते के तहत अपनी हारी हुई जमीन
वापस पा ली और बाद में इंसानियत तथा जिनेवा समझौते के तहत अपने नब्बे हजार
युद्धबन्दी सैनिकों को भी हासिल कर लिया। भारत ने समझौते के तहत अपने युद्धबन्दी
सैनिकों को वापस माँगा था- हारी हुई जमीन नहीं; इसलिए न उसे जमीन मिली और न ही
पूरे युद्धबन्दी सैनिक!
कहने का तात्पर्य, हमारे सैनिकों ने युद्ध करके जो भी हासिल
किया, उसे हमारे राजनीतिज्ञों ने कूटनीतिज्ञों की सलाह पर वार्ता की मेज पर खो
दिया। अतः इन खोये हुए भागों (पाक अधिकृत काश्मीर एवं अक्साई/अक्षय चीन) को वापस
हासिल करना सैनिकों की नहीं, राजनीतिज्ञों एवं कूटनीतिज्ञों की जिम्मेवारी बनती
है!
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